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________________ कातन्त्रव्याकरणम् उपधासंज्ञक वर्ण को ह्रस्वादेश, ह्रस्वादेश का निषेध, अकार को ईकारादेश, 'घ्रा-स्था' धातुओं की उपधा को इत्त्व, सूत्रकृति की विचित्रता-"विचित्रा हि सूत्रस्य कृति:' । चेक्रीयितलुगन्त का भाषा में अप्रयोग, भाषा में भी चेक्रीयितलुगन्त का अभिधान, विशेषणविशेष्यभाव का प्रयोक्ता के अधीन होना, 'अीकृतत्' के सम्बन्ध में शर्ववर्माचार्य का विशेष अभिमत, एक ही वर्ण का व्यवधान मान्य, अनेक वर्णों का नहीं, ज्ञापक विधियों की अनित्यता, सुखार्थ-निःसन्देहार्थ-स्पष्टार्थ-अभिधानार्थ-आगमार्थ-उच्चारणार्थपरिभाषाबाधनार्थ-गणपठितार्थ-प्रतिपत्त्यर्थ-उत्तरार्थ-चेक्रायितलुगनिवृत्त्यर्थ-प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थ अनेक विषयों का साधन तथा विविध आचार्यों के विशेष अभिमत ] षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपादः (सूत्रसंख्या - १०२) २३१-३७५ १३. अनुषङ्गसंज्ञक नकार का लोप २३१-४० | नष्टः, नष्टवान् इत्यादि में नकार का लोप, गुणविधायक-गुणनिषेधक प्रत्ययों के परे रहते इदनुबन्ध-अनिदनुबन्ध वाली धातुओं में रहने वाले तथा विकरण 'न' के बाद आने वाले नकार का लोप, 'समीधे' इत्यादि में नकार का लोप । उपलक्षणार्थव्यवस्थितविभाषार्थ-सखार्थ या सुखप्रतिपत्त्यर्थ अनेक विषयों का उपस्थापन । अन्य:अन्ये-कश्चित्-वयम् -सूत्रकार-भाष्यकार-पदकार-एक-अपर आदि आचार्यों के विविध अभिमत । नु का ग्रहण अनुस्वागेपलक्षणार्थ. वा का ग्रहण व्यवस्थितविभाषार्थ, सम् - पूर्वक इन्ध धातु का भाषा में भी प्रयोग तथा पदकार-भाष्यकार में मतभेद ) १४. दीर्घ, वृद्धि तथा गुणादेश ___२४०-६२ । 'पाचयति' इत्यादि में उपधासंज्ञक अकार को दीर्घ, 'निनाय, अनैषीत्, अभैत्सीत्' इत्यादि में नामिसंज्ञक वर्णों की वृद्धि, 'अपाक्षात्, अवादीत्' इत्यादि में दीर्घ, ‘अजागरीत, असरत्, जागरयति, जजागरुः. सम्मरतुः, तेरतुः. आनछु' इत्यादि में गुणादेश । 'लिङ्गार्थ-स्पष्टार्थ-नित्यार्थ-उपदेशार्थ-ज्ञापनार्थ-अवधारणार्थ-सुखप्रतिपत्त्यर्थ-जात्यर्थपाठसुखार्थ-गुणार्थ-प्रायोगिकपरिग्रहार्थ-गुण्यर्थ' अनेक कार्यों का साधन । सज्ञापूर्वक वृद्धिनिर्देश की अनित्यता, जातिव्यक्तिनिर्देश. उपधा-नामी में से केवल नामी की ही अनुवृत्ति, शिष्टसंमत पक्ष का प्रदर्शन. स्पष्टावबोधहेत् योगविभाग का आश्रयण, 'अभ्रवभ्र-मभ्र' इत्यादि दण्डक धातुएँ, पाठसुखार्थ अर्ति-सर्ति' धातुओं का तिप्प्रत्ययान्त निर्देश, सामान्य-विशेष में विशेष का अन्तरङ्गता. 'शशवान् - ददृवान् ' इत्यादि छान्दस प्रयोग, धातुओं की अनेकार्थकता तथा तुष्यतु दुर्जन:-न्याय |
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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