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________________ तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपाद: २४३ अत उपधायाः” (अ० ७।२ । ११५, ११६)। यह ज्ञातव्य है कि पाणिनि धात् में उपधासंज्ञक अकार को तथा अजन्त अङ्गरूप धातु के अन्त में विद्यमान इकारादि को वृद्धिविधान ही करते हैं, जबकि कातन्त्रकार ने उपधागत अकार को दीर्घ तथा नामिसंज्ञक को वृद्धिविधान एक ही प्रकृत सूत्र द्वारा किया है। वस्तुतः ह्रस्व अकार के स्थान में दीर्घ आकार लाने के लिए दीर्घविधान ही समीचीन है, अत: कातन्त्रकार का निर्देश अधिक सङ्गत कहा जाएगा। एक सूत्र द्वारा दो कार्यों का निर्देश भी कातन्त्रकार का लाघवबोधक है। [विशेष वचन] १. संज्ञापूर्वकत्वाद् वृद्धिरनित्येति समानलोपत्वात् सन्वद्भावो न स्यात् (दु० वृ०)। २. यत्र गणो नास्ति तदर्थ नामिग्रहणमित्यर्थ: (१० टी०)। ३. समुदायस्य लाक्षणिकत्वेनावयवोऽपि लाक्षणिक: (दु० टी०)। ४. नामिना धातुर्विशिष्यते विशेषणेन च तदन्तविधिरिति नाम्यन्तस्य धातोर्भविष्यति, यन्नामिनामिति बहवचनं तद व्याप्त्यर्थम् (द० टी०)। ५. भिन्नविभक्तिनिर्देशादिह वाक्यार्थद्वयम्, तेन नामिनामित्यनेन सहोपधा न सम्बध्यते (दु० टी०; वि० प०)। ६. 'आ' इति सिद्धे दीर्घग्रहणं संज्ञापूर्वकत्वादनित्यार्थमेव (दु० टी०)। ७. अथ 'वा' ग्रहणं व्यवस्थितविभाषात्वेन वर्निष्यते ? तदा स्पष्टार्थम् (दु० टी०)। ८. नामिनां च वृद्धिरिति, नाम्यन्तानामित्यर्थः (वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. पारयति। पच् + इन् + ति। 'इ पचप् पार्क' (१ । ६०३) धातु से हेत्वर्थ में "धातोश्च हेतौ'' (३।२।१०) से 'इन्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से उपधासंज्ञक अकार को दीर्घ, "ते धातवः” (३।२। १६) से 'पाचि' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-एकवचन ‘ति प्रत्यय, "अन् विकरण: कतरि'' (३।२।३२) से 'अन्' विकरण, इकार को गुण तथा एकार को अयादेश। २. अपाचि। अट् + पच् + त-इच्। 'इ पचष् पाके' (१। ६०३) धातु से अद्यतनीसंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष–एकवचन 'त' प्रत्यय, अडागम, इच् आदेश तथा प्रकृत सूत्र से उपधासंज्ञक अकार को दीर्घ । ३. पपाच। पच् + परोक्षा-अट्। 'डु पचष् पाके' (१ । ६०३) धातु से परोक्षासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष एकवचन – 'अट्' प्रत्यय, द्विवचनादि तथा प्रकृत सूत्र से धातु की उपधा को दीर्घ। ८. नाययति। नी + इन् + नि। ‘णी प्रापणे' (१ । ६००) धातु से 'इन्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से ईकार को वृद्धि, आय आदेश, धातुसंज्ञा, 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण, इकार को गुण-एकार तथा अयादेश।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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