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________________ कातन्त्रव्याकरणम् नमागम तथा कातन्त्रीय व्यवस्था के अनुसार नकारागम किया गया है। कातन्त्रव्याकरण में लोकप्रसिद्धि के आधार पर जिन वर्णों की 'स्वर' संज्ञा की गई है, पाणिनि ने उन्हें 'अच्' प्रत्याहार में परिगणित किया है। इसी के अनुरूप पाणिनि का सूत्र है -- "रधिजभोरचि'' (अ० ७।१।६१)। कातन्त्रटीकाकार ने “जभे: स्वरे, रधेश्च'' इस प्रकार के दा सूत्र बनाने का जो पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया है, उसे 'वरमक्षराधिक्यं न पनर्योगविभागः' इस न्याय के आधार पर छोड़ दिया गया है। अर्थात् दो सूत्रों की रचना को समीचीन नहीं माना गया है। [रूपसिद्धि] १. रन्धयति। रध् + इन् + ति। 'रन्धानं प्रयुङ्क्ते' इस विग्रह में 'रध हिंसायां च' (३।३७) धातु से 'धातोश्च हेतो'' (३। २ । १०) सूत्र द्वारा 'इन्' प्रत्यय, न्' अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, “रधिजभो: स्वरे'' (३। ५। ३२) से नकारागम. "ते धातवः" (३।२।१६) से 'रन्धि' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष एकवचन 'ति' प्रत्यय, 'अन्' विकरण "मनोरनुस्वारो घुटि'' (२।४।४४) से 'न्' को अनुस्वार, “वर्गे वर्गान्तः' (२।४।४५) से अनुस्वार को नकार, "नाम्यन्तयोर्धातविकरणयोर्गणः" (३। ५ । १) से इकार को गुण, तथा “ए अय्'' (६१२।१२) से एकार को अयादेश। ____२. अरन्धि। अट् + रध् + अद्यतनी-त। 'रध हिंसायां च' (३।३७) धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष-एकवचन 'त' प्रत्यय, अडागम, सिच् को बाधकर "भावकर्मणोश्च' (३।२।३०) से इच् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से नकारागम तथा “इचस्तलोप:' (३।४।३१) से 'त' प्रत्यय का लोप। ३. जम्भयति। जभ् + इन् + अन् + ति। 'जभमानं प्रयङ्क्त' इस विग्रह में 'जभ जुभि गात्रविनामे' (१।३९३) धातु से 'इन्' प्रत्यय, नकारागम, अनुस्वार, मकारादेश, 'जम्भि' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण, इकार को गुण तथा अयादेश। ४. अजम्भि। अट् + जभ् + अद्यतनो-त। 'जभ' धातु से अद्यतनीसंज्ञक 'त' प्रत्यय, अडागम. इच् प्रत्यय, नकारागम तथा 'त' प्रत्यय का लोप।। ६६४। ६६५. नेटि रधेरपरोक्षायाम् [३। ५। ३३] [सूत्रार्थ] परोक्षाविभक्ति से भिन्न प्रत्यय में इडागम होने पर 'रध' धातु को नकारागम नहीं होता है।। ६६५। [दु० वृ०] रधेर्नकारागमो न भवति इटि परेऽपरोक्षायाम्। रधिता, रधिष्यति, रधितव्यम्। अपरोक्षायामिति किम् ? ररन्धिव ररन्धिम!। ६६५ ।।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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