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________________ तृतीये आख्याताध्याये पञ्चमो गुणपाद: ६५७. तुदादेरनि [३! ५। २५] [सूत्रार्थ] अन् विकरण के परे रहते तुदादिगणपठित धातुओं में गुण आदेश नहीं होता है।। ६५७। [दु० वृ०] तुदादेरनि परे गुणो न भवति। तुदति, नुदति।। ६५७ । [दु० टी०] तुदा० । तुदादेरन्यस्यानोऽसम्भवाद् विकरण एव प्रतीयते! तुदति, नुदतीति। यद्यपि नुदिरुभयपदी, तथापि भाषायाम् आत्मनेपदं नाभिधीयते। परम्मैपदिष केचित् पठन्ति ।। ६५७। [वि० प०] तुदादेः। तुदति, नुदतीति। 'तुद व्यथने, नुद प्रेरणे' (५ । १, २) उभयपदिनोऽप्यस्य भाषायां परस्मैपदमेवाभिधीयते।। ६५७ । [बि० टी०] तुदा० । ननु 'दि-ताम्-अन्' इत्यस्य ग्रहणं कथन्न स्यादिति चेत् न, "द्वित्वबहुत्वयोश्च" (३। ५। ३९) इत्यादिना प्रतिषेधात् ।। ६५७ । [समीक्षा] 'तुदति, नदति' आदि शब्दरूपों की सिद्धि में धातगण के निषेध की आवश्यकता होती है, इसका निर्देश दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है - “सार्वधातुकमपित्, क्ङिति च" (अ० १।२। ४; १। ५)। पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार 'तुद' आदि धातुओं से होने वाले 'श' विकरण को ङिद्वद्भाव तथा उस आधार पर गुण का निषेध प्रवृत्त होता है। इसके विपरीत कातन्त्रकार सीधे ही गुणनिषेध करते हैं। [विशेष वचन] १. यद्यपि नुदिरुभयपदी, तथापि भाषायामात्मनेपदं नाभिधीयते। परस्मैपदिषु केचित् पठन्ति (दु० टी०)। २. नुद प्रेरणे। उभयपदिनोऽप्यस्य भाषायां परस्मैपदमेवाभिधीयते (वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. तुदति। तुद् + अन् + ति। 'तुद व्यथने' (५ । १) धातु से वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष–एकवचन 'ति' प्रत्यय, "अन् विकरण: कर्तरि'' (३।२।३२) से 'अन्' विकरण तथा प्रकृत सूत्र से गुण का निषेध। २. नुदति। नुद् + अन् + ति। ‘णुद प्रेरणे' (५।२) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण तथा गुण का प्रतिषेध।। ६५७।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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