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________________ तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: १४३ प्रकथने' (२।२४) इत्यनेन न सिध्यति चक्षिङ: प्रयोगश्च प्राप्नोति ख्यादिस्तावदयमादेश: क्ष्यादिरपीष्यते। कैश्चिद् आक्ष्याता, आक्ष्यातुम्। 'संचश्वः' इति व्यञ्जनान्तत्वाद् घ्यण, वर्जनेऽत्र धातुर्वर्तते। 'नृन् चष्टे' इति हिंसायामत्र धादुः, अन्यत्र विचष्टे इति विचक्षण: "कृत्ययुटोऽन्यत्रापि" (४।५।९२) इति कर्तरि युट्। बोनेऽत्र धातुर्वर्तते इति।। ६२८ । [समीक्षा] 'चक्षिङ्' धातु से असार्वधातुक ‘ता–स्यति' आदि प्रत्ययों में 'आख्याता, आख्यास्यति, आख्यास्यते' आदि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ दोनों ही आचार्यों ने 'ख्याञ्' आदेश का विधान किया है। पाणिनि का भी यही सूत्र है – “चक्षिङः ख्याञ्'' (अ० २।४।५४)। यह ज्ञातव्य है कि 'चक्षिङ्' धातु ङानुबन्ध होने से आत्मनेपदी है “कर्तरि रुचादिङानुबन्धेभ्यः” (३।२।४२), परन्तु यहाँ उभयपदी अभीष्ट होने से 'ख्याञ्' आदेश में प्रकारानुबन्ध किया गया है - "इन्ज्य जादेरुभयम्'' (३।२।४५)। इसके फलस्वरूप 'आख्यास्यति, आख्यास्यते' आदि रूप उभयपदों में सिद्ध होते हैं। किन्हीं विद्वानों के मतानुसार 'क्ष्या' आदेश होता है, अत: 'आक्ष्याता, आक्ष्यातुम्' शब्दरूप भी साधु माने जाते हैं। [विशेष वचन १. कथं संचक्ष्यो दुर्जनः, वर्जनीय इत्यर्थः (द० वृ०)। २. विचक्षणो विद्वान् लोकत: सिद्ध: (दु० वृ०)। ३. संचक्ष्यः इति। .......... वर्जनेऽत्र धातुर्वर्तते (दु० टी०)। ४. नृन् चष्टे (नृचक्षा) इति हिंसायामत्र धातुः (दु० टी०)। ५. विचष्टे इति विचक्षणः ....... बोधनेत्र धातुर्वर्तते इति (दु० टी०)। [रूपसिद्धि] १. आख्याता। आ + चक्षिङ् + श्वस्तनी-ता। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि' (२४१) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक प्रथमपुरुष–एकवचन 'ता' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'ख्या' आदेश, '' अनुबन्ध का प्रयोगाभाव तथा “अनिडेकस्वरादातः" (३। ७।१३) से इडागम का अभाव। २. आख्यास्यति, आख्यास्यते। आ + चक्षिङ् + स्यति। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक भविष्यन्तीसंज्ञक प्रथमपुरुष–एकवचन 'स्यति' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'ख्या' आदेश। आत्मनेपदसंज्ञक 'ते' प्रत्यय में 'आख्यास्यते' रूप।। ६२८। ६२९. वा परोक्षायाम् [३।४।८९] [सूत्रार्थ] परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते ‘चक्षिङ्' के स्थान में 'ख्याञ्' आदेश विकल्प से होता है।। ६२९ ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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