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________________ १३२ कातन्त्रव्याकरणम् विभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष–एकवचन 'अट्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'वयि' आदेश, इकारानुबन्ध का प्रयोगाभाव, द्विवचन, अभ्याससंज्ञा, आदि व्यञ्जन का अवशेष, 'व' को सम्प्रसारण तथा उपधासंज्ञक अकार को दीर्घ । ‘वयि' आदेश न होने पर ‘ववौ' रूप सिद्ध होता है। २. ऊयतुः। वेञ् + परोक्षा-अतुस्। 'वेज्' धातु से 'अतुस्' प्रत्यय, 'वयि' आदेश तथा द्विर्वचनादि। पक्ष में ‘ववतुः' रूप होता है। ३. ऊयुः। वेज् + परोक्षा-उस्। 'वे' धातु से 'उस्' प्रत्यय, 'वयि' आदेश तथा द्विर्वचनादि। पक्ष में ‘ववु:' रूप साधु माना जाता है।। ६२० । ६२१. हन्तेर्वधिराशिषि [३।४।८१] [सूत्रार्थ] आशीविभक्तिसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते ‘हन्' धात् को 'वधि' आदेश होता है।। ६२१ । [दु० वृ०] हन्तेर्वधिर्भवति आशिषि परतः। वध्यात्, वध्यास्ताम् ।।६२१ । [दु० टी०] हन्तेः। तिप्-निर्देशोऽत्र श्रुतिसुखार्थ एव ।।६२१ । [समीक्षा 'हन्' धातु से ‘वध्यात्' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ ‘वध' आदेश अपेक्षित होता है, इसका विधान दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है"हनो वध लिङि'' (अ० २।४। ४२)। कातन्त्रीय सूत्रपाठ में हन्ति' यह तिप्प्रत्ययान्त निर्देश श्रुतिसुखार्थ माना जाता है- “तिप्-निर्देशोऽत्र श्रुतिसुखार्थ एव” (दु० टी०)। [रूपसिद्धि] १. वध्यात्। हन् + आशीविभक्ति-यात्। 'हन् हिंसागत्यो: (२४) धातु से आशीविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष–एकवचन 'यात्' प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से हन् को वध् आदेश। २. वध्यास्ताम्। हन् + आशीविभक्तिसंज्ञक-यास्ताम्। 'हन्' धातु से परोक्षासंज्ञक ‘यास्ताम्' प्रत्यय तथा ‘वध्' आदेश।। ६२१ । ६२२. अद्यतन्यां च [३। ४। ८२] [सूत्रार्थ अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते 'हन्' को 'वध्' आदेश होता है।। ६२२ । [दु० वृ०] हन्तेरद्यतन्यां च परतो वधिर्भवति। अवधीत्, अवधिष्टाम्। अनान्तत्वादिटि कृते
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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