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________________ कातन्त्रव्याकरणम् ततश्चार्थकृतं त्रिकसमुदायकृतं न शब्दकृतमिति शब्दपदेनात्र तितसादिव्यक्तिरुच्यते, ततश्च न शब्दकृतं न तितसादिव्यक्तिकृतम्, तदेव दर्शयति – तथाहीति । हेतुरत्र त्रीणि त्रीणि इति पदम्, अन्यथा त्यादीनि प्रथममध्यमोत्तमा इत्येव कृतं स्यादिति पूर्वमेव व्याख्यातम् ।। ४१९ । [समीक्षा] · परस्मैपदसंज्ञक तथा आत्मनेपदसंज्ञक ९-९ प्रत्ययों में जो तीन-तीन त्रिक हैं, उनकी क्रमशः प्रथमपुरुष, मध्यमपुरुष तथा उत्तमपुरुष संज्ञा दोनों ही आचार्यों ने की है। प्रथमपुरुष का व्यवहार अन्यार्थ में, मध्यमपुरुष का युष्मदर्थ में एवं उत्तमपुरुष का अस्मदर्थ में होता है । सामान्यतया परोक्षविषय में प्रथमपुरुष का तथा प्रत्यक्ष विषय में मध्यम-उत्तमपुरुष का प्रयोग किया जाता है | पाणिनि का संज्ञाविधायक सूत्र है- “तिङस्त्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमाः" (अ० ११४ ।१०१)। प्रथम - मध्यम - उत्तम संज्ञाओं के साथ पुरुषशब्द की योजना लोकप्रसिद्धि तथा 'पूर्वाचार्यकृत व्यवहार के आधार पर की जाती है । क्रियानिरूपित कर्तृत्व स्त्री तथा नपुंसक में भी रहने से इनकी योजना प्रथम-मध्यम-उत्तम के साथ क्यों नहीं की जाती । इसके समाधान में व्यपदेशभूयस्त्व को कारण बताया गया है। प्राचीन आचार्यों द्वारा इनका प्रयोग - निरुक्त- तास्त्रिविधा ऋचः । परोक्षकृताः, प्रत्यक्षकृताः, आध्यात्मिक्यश्च । तत्र परोक्षकृताः सर्वाभिर्नामविभक्तिभिर्युज्यन्ते प्रथमपुरुषैश्चाख्यातस्य । अथ प्रत्यक्षकृता मध्यमपुरुषयोगाः । त्वमिति चैतेन सर्वनाम्ना अथाध्यात्मिक्य उत्तमपुरुषयोगाः। अहमिति चैतेन सर्वनाम्ना (७।१)। काशकृत्स्नधातुव्याख्यान - धातौ साधने दिशि पुरुषे चिति तदाख्यातम् (सू० १) । अथर्ववेदप्रातिशाख्य – अस्तेः प्रेषण्या मध्यमस्यैकवचनम् भूतेऽद्यतन्या मध्यम स्यैकवचनम् (२।१।११; २।२।५)। अर्वाचीन आचार्यों द्वारा प्रयोग - जैनेन्द्रव्याकरण- मिङस्त्रिशोऽस्मयुष्पदन्याः (१।२।१५२) । हेमशब्दानुशासन - त्रीणि त्रीणि अन्ययुष्मदस्मदि (३।३।१७)। अत्र प्रथमादिषु पुरुषसंज्ञा तु प्राचीनाचार्यशास्त्रसिद्धेति बोध्यम् (सि० को०- बा० म० १।४।१०१)।
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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