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________________ १२ कातन्त्रव्याकरणम् के आथाम्-ध्वम्-इट्-वहि-महिङ् ' इन नौ प्रत्ययों का 'तङ्' प्रत्याहार से बोध कराया जाता है, इन्हीं की पाणिनि ने आत्मनेपद संज्ञा की है - " तङानावात्मनेपदम् " (अ० १।४।१००) । कातन्त्रकार 'वर्तमाना' आदि कालबोधक प्रत्येक संज्ञा में १८ प्रत्यय पढ़ते हैं, इन्हें 'त्यादि' कहा जाता है । इनकी संख्या १८० है, इन्हीं में से प्रत्येक नौ प्रत्ययों बाद ९ प्रत्ययों की आत्मनेपद संज्ञा की गई है। सूत्र में केवल 'आत्मने' शब्द ही पढ़ा गया है, अतः 'आदिलोपो ऽन्तलोपश्च' वचन के अनुसार यहाँ 'पद' शब्द का तथा उसमें जस् विभक्ति का लोप व्याख्याकारों द्वारा स्वीकार किया गया है। अपने लिए जिनको जाना जाता है या जिनका प्रयोग किया जाता है उन्हें आत्मनेपद कहते हैं- आत्मने स्वस्मै पद्यन्ते ज्ञायन्ते प्रयुज्यन्ते वा यानि तानि 'आत्मनेपदानि | आत्मनेपद के लिए पूर्वाचार्य 'आत्मनेभाष' शब्द का प्रयोग करते थे, यह कैयट के वचन से स्पष्टतः जाना जा सकता है – “आत्मनेभाषपरस्मैभाषयोरुपसंख्यानम्" (म० भा०) । आत्मनेभाषपरस्मैभाषशब्दौ च न केषुचिद् व्याकरणेषु संज्ञात्वेन विनियुक्ताविति अलुकोऽप्रसङ्गः । आत्मनेपदिनश्च धातवो वैयाकरणैरात्मनेभाषशब्देन व्यवह्रियन्ते, परस्मैपदिनः परस्मैभाषशब्देनेत्यलुक् सिद्धः " (म० भा० प्र० ६ । ३ । ७-८ ) । अथर्ववेदप्रातिशाख्य में इसके प्रयोग से इस कथन की सम्पुष्टि होती है - "वर्णलोपागमहस्वदीर्घप्लुतआत्मनेभाषा - परस्मैभाषा अपियन्त्यपियन्ति” (४।३।७) । प्रचलित पाणिनीय धातुपाठ में आत्मनेपद के लिए आत्मनेभाष का प्रयोग प्रायः उपलब्ध होता है - “उदात्तः परस्मैभाषः । एधादय उदात्ता अनुदात्तेत आत्मनेभाषा : " (भ्वादि:, धा० सं० १, २ - ३७) । केवल आत्मनेभाष का ही नहीं 'आत्मनेपद' शब्द का भी व्यवहार काशकृत्स्नतन्त्र में उपलब्ध होने के कारण इस संज्ञा की भी प्राचीनता प्रमाणित होती है - " अनुदात्तङानुबन्ध आत्मनेपदम्" (का० धा० व्या०, सू० ८८ ) । अर्वाचीन व्याकरणादि ग्रन्थों में इसका प्रयोग 9. जैनेन्द्रव्याकरण - इङानं द: ( १ । २।१५१ ) । हैमशब्दानुशासन - पराणि कानानशौ चात्मनेपदम् (३।३।२०) । मुग्धबोधव्याकरण - नवमः पमे ञितोऽन्यङिद्भ्यां घे ( सू० ५३१ ) । अग्निपुराण - परे नवात्मनेपदम् (३५७।५) । नारदपुराण - अनुदात्तञितो धातोः क्रियाविनिमये तथा । निविशादेस्तथा विप्र ! विजानीह्यात्मनेपदम् || आत्मने= आत्मार्थम् आत्मप्रयोजनं वा पद्यते ज्ञायते येन तद् आत्मनेपदम् ।
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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