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________________ १: तृतीये आख्याताप्याये तृतीयो विवनपादः [समीक्षा] 'मित्सति, आरिप्सते, धिप्सति, मोक्षते' इत्यादि शब्दरूपों में अभ्यासलोप के विधानार्थ 'अभ्यासलोप' के अधिकार की आवश्यकता होती है, इसकी पूर्ति दोनों आचार्यों ने की है। अन्तर यह है कि जिन चार सूत्रों में अभ्यासलोप की आवश्यकता है, उन सूत्रों को बनाने के बाद पाणिनि ने यह अधिकारसूत्र “अत्र लोपोऽभ्यासस्य" (अ० ७।४।५८) प्रस्तुत किया है, अतः सूत्र में 'अत्र' शब्द का उल्लेख है, परन्तु कातन्त्रकार ने अधिकार उपस्थापित करके सम्बद्ध सूत्र बाद में बनाए हैं, अतः 'इतः' शब्द का प्रयोग किया है । जैसे 'आङ्' उपसर्ग पूर्वक 'रभ्' धातु से सन् प्रत्यय,द्वित्व, अभ्यासकार्य से 'र रभ स' इस स्थिति में धातुघटित अकार को इस् तथा अभ्यासलोप आदि करने पर 'आरिप्सते' प्रयोग निष्पन्न होता है । इसी प्रकार 'ईप्सति, धीप्सति, शिक्षति, मोक्षते' आदि में भी 'ईत्-इस-गुण' के अतिरिक्त अभ्यासलोप भी प्रवृत्त होता है। [विशेष वचन] १. पुनरभ्यासग्रहणं समस्तलोपार्थम् (दु० वृ०)। २. प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थमेव (दु० टी०) ।। ५३५। ५३६. सनि मिमीमादारभलभशकपतपदामिस् स्वरस्य [३।३।३९] [सूत्रार्थ] 'मि- मी - मा -दा- रभ - लभ् - शक् - पत् - पद्' धातुओं के स्वर को इस् आदेश तथा अभ्यासलोप होता है सन् प्रत्यय के पर में रहने पर ।। ५३६॥ [दु० वृ०] मिञादीनां स्वरस्य सनि परे इसादेशो भवति अभ्यासलोपश्च । डु मिञ्मित्सति । मीञ् मीङ् वा - प्रमित्सति, प्रमित्सते । मा इति मेङ्माङोरपि ग्रहणम् । प्रमित्सते, उपमित्सते । दासंज्ञकः- दित्सति, धित्सति । रभ -आरिण्सते । लभ - आलिप्सते । शक्ल शक-शिक्षति | पल पत - पित्सति । पद - पित्सते । कथं पिपतिषति ? सनीति द्विसकारोऽयं निर्देशो व्यक्तिर्वेति । प्रतिरित्सतीति वक्तव्यम् । प्रतिपूर्वो राधो हिंसायाम् ।।५३६। [दु० टी०] सनि० । 'मीङ् हिंसायाम्' (३।८५) इति देवादिकोऽपि मित्सति । केचिद् मिनोतिं न पठन्ति । "स्वरान्तानां सनि" (३।८।१२) इति दीर्घत्वे मीरूपस्य सम्भवात्
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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