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________________ ३४ कातन्त्रव्याकरणम् १९. 'प्रथम-तृतीयवर्ण-ज्-चवर्ग' आदेश ३४७-५८ [अभ्याससंज्ञक शब्दरूप में स्थित द्वितीय-चतुर्थ वर्गों के स्थान में क्रमशः प्रथमतृतीय वणदिश, तन्त्रान्तर में परकार्य का असिद्धवत् न होना, स्थानिवद्भाव, कुलचन्द्रहेमकर आदि आचार्यों के विविध मत, सर्वसम्मति का दोष के रूप में उपादान, अभ्याससंज्ञक हकार के स्थान में जकारादेश, शिक्षा के आश्रयण से प्रतिपत्तिगौरव, अभ्याससंज्ञक कवर्गीय वर्गों के स्थान में चवगदिश, पाणिनि के अनुसार 'ह' को 'झ' तदनन्तर 'झ्' को 'ज्' आदेश, ‘कवर्ग-चवर्ग' में 'वर्ग' शब्द का पाठ सूत्ररचना की विचित्रता के प्रदर्शनार्थ, दण्डक धातुएँ, पाणिनि द्वारा 'उ' अनुबन्ध से तथा शर्ववर्मा द्वारा 'वर्ग' संज्ञा द्वारा वर्ग = वर्गीय वर्णों का बोध, अभ्यासगत 'कु' धातु में चवगदिश का प्रतिषेध, मन्दमतिवालों के अवबोधार्थ 'चेक्रीयित' का ग्रहण] २०.हस्व-अ-दीर्घ-नकारागम-गुण-इ-अभ्यासगुण-अभ्यासदीर्घ-'नी' आगमअनुस्वार-उ- 'री' आगम ३५८-४०१ [अभ्याससंज्ञक शब्द के अन्त में विद्यमान दीर्घ स्वर का हस्व आदेश, पाणिनीय निर्देश की समानता, अभ्याससंज्ञक ऋवर्ण को कारादेश, सौत्र धातु, लोकोपचार से ऋवर्ण-लुवर्ण का सावर्ण्य, अभ्यासवर्ती 'इण्' धातु को दीघदिश, अभ्यास के आदि में विद्यमान अकार को दीघदिश, दीर्धीभूत अभ्यास से पर में नकारागम, आगम का ग्रहण सुखार्थ, अर्थानुसार विभक्ति का विपरिणाम, अनेक श्लोकवार्तिक, कातन्त्रीय नकारागम के लिए पाणिनीय नुडागम, प्रतिपत्तिगौरव का निरास, अभ्याससंज्ञक 'भू'-घटित उकार को अकारादेश, सभी शब्द व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ को धारण नहीं करते, वृद्ध कातन्त्रीय वैयाकरणों का मत, 'निज्-विज्-विष्' धातुओं के अभ्यास में विद्यमान इकार को गुणादेश, गुण का ग्रहण स्पष्टता के लिए, सूत्रकार के पाठ की सङ्गति, 'भृञ्-हाङ्-माङ्' इन तीन धातुओं के अभ्यास में विद्यमान अकार को इकारादेश, स्पष्टार्थक अनुबन्धयोजना, ऋ-प' धातुओं के अभ्याससंज्ञक अकार को इकारादेश, सुखार्थक पृथग्योग-तिपनिर्देश, अभ्याससंज्ञक अकार को इकारादेश, अभ्यासघटित उकार को इकारादेश, सौत्र धातु-'जु', योगविभाग से इष्टसिद्धि, 'हेमकर' आदि आचार्यों के विविध मत, अभ्यास को गुणादेश, भाषा में भी चेक्रीयितलुगन्त की मान्यता, अभ्यास को दीघदिश, ‘वन्च्' आदि धातुओं के अभ्यासान्त में 'नी अाम, अभ्यासघटित अकार के अन्त में अनुस्वारादेश, 'रूढिछान्दस' की चर्चा, कातन्त्रीय अनुस्वारागम के लिए पाणिनीय नुगागम का विधान, 'जप' इत्यदि धातुओं के अभ्यासान्त अकार को अनुस्वारागम, पूर्ववर्ती गणकारों द्वारा अभिप्राय के परिज्ञान का अभाव, दो प्रकार की धातुएँ, 'चर्-फल् धातुओं
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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