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________________ ३८६ कातन्त्रव्याकरणम् दीर्घार्थमिति वक्तव्यम्, कथं योगविभागार्थमिति ? तथा च टीकायाम् - "सन्यवर्णस्य" (३।३।२६) इत्यत्र हि वर्णग्रहणस्य तन्मते प्रयोजनमुक्तम्, तस्माद् वर्णस्येति विशेष्यस्य पूर्वनिर्देशो बोधयति ।। ५२४। [समीक्षा] 'जु-यु-रु-पू' आदि धातुओं के सन्प्रत्ययान्त 'जिजावयिषति, यियावयिषति, रिरावयिषति, पिपावयिषति' आदि शब्दरूपों के अभ्यास में विद्यमान उकार को इकारादेश की अपेक्षा होती है। इसे ही दोनों आचार्यों ने सूत्रों में विहित किया है। पाणिनि का सूत्र है- “ओः पुयज्यपरे" (अ० ७।४।८०)। यहाँ 'जु' इस सौत्र धातु का ग्रहण किया जाता है। कातन्त्र में भी इसे सौत्र धातु के रूप में ही स्वीकार किया गया है । इसमें हेमकर आदि आचार्यों के विविध मत प्रस्तुत किए गए हैं। अनेक श्लोकवार्त्तिक उद्धृत किए गए हैं । इष्टसिद्धि के लिए योगविभाग की चर्चा की गई है। [विशेष वचन] १. 'जुचङ्क्रम्य०' इत्यादिना सौत्रो धातुरिति । असम्भवादिना व्यवधानमिति गम्यते (दु० टी०)। २. सन्यभ्यासस्येति सम्बन्धी विशेषप्रतिपत्तिगौरवं स्याद् इति उवर्णग्रहणम् (दु० टी०)। ३. पवर्ग इति परम्परया सप्तमीनिर्देशे विशेषणप्रतिपत्तिगौरवं स्यादिति परग्रहणम् (दु० टी०)। ४. वर्णग्रहणमिदं ज्ञापयति- सेटि सनि गुणात् प्राग् द्विवचनम्, तेन प्रोणुनविषतीत्यादि सिद्धम् (दु० टी०)। ५. 'जु' इति सौत्रो धातुः “जुचक्रम्य०" (४।४।३२) इत्यादिना सूत्रे भवः सौत्रः, न पुनर्गणपरिपठितः इति भावः (वि० प०)। ६. वर्णग्रहणेनैव ज्ञापयति - सेटि सनि गुणात् प्राग्. द्विवचनमिति (वि०प०)। ७. इह योगविभागादियमिष्टसिद्धिरिति भावः (वि०प०)। ८. वर्णग्रहणं सुखार्थम् (बि० टी०)। ९. योगाविभागादियमिष्टसिद्धिरिति 'उवर्णस्यावर्णे' इत्येको योगः 'जान्तस्थापवर्गपरस्य' इति द्वितीयः (बि० टी०)।
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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