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________________ ३७५ तृतीये आख्याताप्याये तृतीयो द्विवचनपादः टीकाकारों ने 'गुणः' के स्थान में ‘एत्' की तथा ‘सार्वधातुके' के स्थान में 'अनुकि' पाठ की उद्भावना तो की है, परन्तु व्याख्यानबल से सूत्रकार के ही पाठ को सङ्गत बताया है। [विशेष वचन] १. निजामिति कृत्वा वृच्छब्द आद्रियताम्, बहुवचनेन च निजिर् - - विजिर् - - - विष्लू - - । एते त्रय एवावसीयन्ते, किन्तु प्रतिपत्तिगौरवं स्यात् (दु० टी०)। २. एदिति सिद्धे गुणग्रहणं स्पष्टार्थम्, अन्लुकीति सिद्धे सार्वधातुकमपि तथैव (दु० टी०, बि० टी०)। ३. अभ्यासलोपे वर्णान्तस्य विधिरिति न्यायादिकारस्यैव गुण इत्यदोषः (वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. नेनेति । निज् + अन्लुक्+ति । 'निजिर् शौचपोषणयोः' (२।८१) धातु से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-एकवचन 'ति' प्रत्यय, “अन् विकरणः कर्तरि" (३।२।३२) से अन् विकरण, “अदादेलुंग् विकरणस्य" (३।४।९२) से उसका लुक्, "जुहोत्यादीनां सार्वधातुके" (३।३।८) से द्विर्वचन, अभ्यासक र्य, प्रकृत सूत्र से अभ्यासवर्ती इकार को गुण, "नामिनश्चोपधायाः" (३।५।२) से मूलभूत धातुगत इकार को गुण तथा "चवर्गस्य किरसवर्णे" (३।६।५५) से जकार को ककारादेश। २. नेनियात् । निज् + सप्तमी -यात् । 'निजिर् शौचपोषणयोः' (२।८१) धातु से सप्तमीसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-एकवचन 'यात्' प्रत्यय, अन्-लुक्, द्वित्व, अभ्याससंज्ञादि, अभ्याससंज्ञक इकार को गुण तथा मूल धातुगत इकार को “सप्तम्यां च" (३।५।२३) सूत्रद्वारा गुण का निषेध । ३. बेक्ति । विज् + अन्लुक्+ ति । 'विजिर् पृथग्भावे' (२।८२) धातु से वर्तमानासंज्ञक तिप्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् । ४. वेविज्यात् । विज् + सप्तमी-यात् । 'विजिर् पृथग्भावे' (२।८२) धातु से सप्तमीसंज्ञक यात्-प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया 'नेनिज्यात्' की तरह। ___५. अनेनेक्। अट् + निज् + ह्यस्तनी-दि । 'निजिर् शौचपोषणयोः' (२।८१) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-एकवचन "दि' प्रत्यय, “अड् धात्वादिस्तिन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु" (३।८।१६) से धातुपूर्व अडागम, अन्लुक्,
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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