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________________ २७७ तृतीये आख्याताप्पाये बितीयः प्रत्ययपादः [दु० वृ०] आयिप्रत्ययान्ताच्च धातोः कर्तर्यात्मनेपदानि भवन्ति । हंसायते, पयायते - पयस्यते । अन्तग्रहणादायिलोपे न स्यादिति मतम् । तेन दरिद्रति, घटति ।।४९४ । [दु० टी०] आय्य० ।अन्तग्रहणादित्यादि । मतं मतान्तरम्, ये आयिलोपमिच्छन्तीति ।। ४९४ । [वि० प०] आयि० । आयिरन्तो यस्येति विग्रहः । अन्तेत्यादि । मतमिति मतान्तरम्, पैरायिलोपदर्शनमादृतं तेषामिति भावः । दरिद्र इवाचरति, घट इवाचरतीति वाक्यम् ।। ४९४। [समीक्षा] 'हंस इवाचरति' अर्थ में 'हंसायते', 'श्येन इवाचरति' अर्थ में 'श्येनायते' शब्दरूप के सिद्ध्यर्थ पाणिनि ने क्यङ् प्रत्यय का विधान किया है- “कर्तुः क्यङ् सलोपश्च" (अ० ३।११५५) इत्यादि । इस स्थिति में पाणिनि को यकारादि प्रत्यय के पर में रहने पर “अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः" (अ० ७।४।२५) से अजन्त अङ्ग 'श्येन' आदि में अकार को दीर्घ करना पड़ता है, जब कि कातन्त्रकार ने 'आयि' प्रत्यय का विधान करके इसका समाधान कर दिया है । अतः प्रकृत आयि प्रत्यय के विधान में कातन्त्रकार ने लाघव प्रदर्शित किया है - "कर्तुरायिः सलोपश्च" (३।२।८)। . . [रूपसिद्धि]. १. हंसायते । हंस इवाचरति । हंस +आयि+ते । 'हंस' शब्द से इव आचरति अर्थ में आयि प्रत्यय, "समानः सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोपम्' (१।२।१) से पूर्ववर्ती अ को दीर्घ - उत्तरवर्ती आ का लोप, 'हंसाय' की धातुसंज्ञा, प्रकृत सूत्र द्वारा आत्मनेपद, तदनुसार वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष - एकवचन 'ते' प्रत्यय, “अन् विकरणः कर्तरि" (३।२।३२) से अन् विकरण तथा पूर्वरूप । २. पयायते-पयस्यते । पय इवाचरति । पयस् + आयि+ते । 'इव आचरति' अर्थ में आयेि प्रत्यय - सलोप ‘पयाय' की धातुसंज्ञा तथा ते प्रत्यय । आयिप्रत्यय के अभाव में य-प्रत्यय होने पर ‘पयस्यते' शब्दरूप ।।४९४।
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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