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________________ तृतीये आख्याताध्याये द्वितीयः प्रत्ययपादः [क० च०] इजा० । व्यतिक्रमनिर्देशादपि योगविभागः सिध्यति । गुरुकरणमेव सुखार्थम् ।।४७९। [समीक्षा] 'उदपादि, समपादि' शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ पाणिनि ने च्लि के स्थान में चिण् आदेश तथा कातन्त्रकार ने इच् प्रत्यय किया है | पाणिनि का सूत्र है- "चिण् ते पदः" (अ० ३।१।६०)। पाणिनि द्वारा लुङ् लकार में च्लि प्रत्यय का विधान गौरवाधायक है। कातन्त्रवृत्तिकार के अनुसार "इच् ते पदेः" सूत्रपाठ से ही अभीष्टसिद्धि होने पर भी “इजात्मने पदेः प्रथमैकवचने" इस प्रकार के गौरवपूर्ण सूत्रपाठ का प्रयोजन है - योगविभाग । इसके फलस्वरूप 'दीप-जन-बुध - पूरितायि - प्यायी' धातुओं से इच् प्रत्यय विकल्प से प्रवृत्त होगा । अतः ‘अदीपिअदीपिष्ट' आदि दो-दो रूप बनेंगे। [विशेष वचन] १. 'इच् ते पदेः' इति सिद्धे गुरुकरणं योगविभागार्थम् (दु० वृ०)। २. 'आत्मने प्रथमैकवचने' इति बालावबोधार्थं वा, योगविभागस्तु बुद्धि कल्पनया (दु० टी०)। ३. तथा चोक्तम्, आदिलोपोऽन्तलोपश्च मध्यलोपस्तथैव च । विभक्तिपदवर्णानां दृश्यते शार्ववर्मिक ।।इति (वि० प०)। ४. व्यतिक्रमनिर्देशादपि योगविभागः सिध्यति, गुरुकरणमेव सुखार्थम् (क० च०)। [रूपसिद्धि] १. उदपादि । उद् + अट् + पद + इच् + त । ‘पद गतौ' (३।१०७) धातु से अद्यतनी-आत्मनेपदसंज्ञक प्रथमपुरुष - एकवचन 'त' प्रत्यय,“अड्धात्वादिस्तिन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु" (३।८।१६) से धातुपूर्व अडागम, प्रकृत सूत्र से इच् प्रत्यय, “अस्योपधाया दीर्घो वृद्धिर्नामिनामिनिचट्सु" (३।६।५) से उपधादीर्घ तथा "इचस्तलोपः" (३।४।३२) से तकार का लोप ।
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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