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________________ १८० कातन्त्रव्याकरणम् याचितारश्च नः सन्तु दातारश्च भवामहे । आक्रोष्टारश्च नः सन्तु क्षन्तारश्च भवामहे ।। इति ।। ४६१। [वि० प०] चुरादेश्च । स्वार्थ इत्यनिर्दिष्टार्थः प्रत्ययः स्वार्थे भवति । हेतौ च पूर्वेणैव सिद्धत्वादिति भावः ।।४६१। [क० च०] चुरादेश्च । चुराधन्तर्गणा ये युजादयः प्रीपर्यन्ताः विकल्पेनन्ताः, गणकृतस्यानित्यत्वादिति टीका | मानवधेत्यत्र टीकायां च क्षुभिवाहीत्यादिसूत्रे विशब्दनप्रतिषेधाद् युजादिषु विकल्पः साधितः इत्यादिसिद्धान्तान्तरम् | चोरयति, चिन्तयतीति वृत्तिः । ननु इन्ञ्यजादेरित्यनेनात्मनेपदमपि स्यात् ? नैवम्, गणे आत्मनेभाषेति पाठबलात् सर्वत्र नोभयपदमिति ।। ४६१।। [समीक्षा] ____ 'चुर् स्तेये' (९।१) आदि धातुसूत्रों में निर्दिष्ट स्तेय आदि अर्थों में पाणिनि ने णिच् प्रत्यय तथा कातन्त्रकार ने इन् प्रत्यय करके 'चोरयति-चोरयते' आदि प्रयोग सिद्ध किए हैं । कातन्त्रकार ने चुरादिगणान्तर्गत युजादिगण की धातुओं से इन प्रत्यय के विधानार्थ "चुरादेश्च" यह स्वतन्त्र प्रकृत सूत्र बनाया है, जबकि पाणिनि ने 'सत्यापपाश' इत्यादि के साथ ही इसे भी पढ़ दिया है - “सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यो णिच्' (अ० ३।१।२५) । व्याख्याकारों के अनुसार चुरादि से भिन्न गणों में भी पठित धातुओं से इन् प्रत्यय स्वार्थ में प्रवृत्त होता है । टीकाकार द्वारा उद्धृत मत के अनुसार चुरादिगण के अन्तर्गत युजादि गण पढ़ना चाहिए, जिसमें युज् आदि ४२ धातुओं का समावेश करना आवश्यक है । गणनिर्दिष्ट कार्य के अनित्य होने से इन् प्रत्यय वैकल्पिक होता है। [विशेष वचन] १. चुरादिषु युजादयः पठितव्यास्तेषां विभाषया इन् इत्येके (दु० टी०) । २. गणकृतमनित्यमिति (दु० टी०)। ३. अनिर्दिष्टार्थः प्रत्ययः स्वार्थे भवति (वि० प०)।
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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