SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कातन्त्रव्याकरणम् के अनुसार आचार्य आपिशलि ने इसका आकारान्त (सार्वधातुका) प्रयोग किया है, लेकिन सुपद्मव्याकरण के टीकाकार मकरन्द के अनुसार किसी पूर्वाचार्य द्वारा इसके नपुंसकलिङ्ग में होने की संभावना की गई है – “सार्वधातुकमिति गुरुसंज्ञा पूर्वाचार्यप्रसिद्धेह निबद्धा, अतः स्वभावतो नपुंसकलिङ्गमपि' (सु० व्या०-टी० । द्र०, टे० ट० टे० सं० ग्रा०, भाग १, पृ० ४७) । [विशेष वचन] १. सार्वधातुकं नपुंसकं लोकतः सिद्धम् । पूर्वाचार्यसंज्ञा निरन्वयेयम् (दु० टी०; वि० प०)। पूर्वाचार्यों द्वारा इस संज्ञा का व्यवहार - काशकृत्स्नधातुव्याख्यान - नामिनो गुणः सार्वधातुकार्धधातुकयोः, दानादीनां सन् सार्वधातुके, रुदादेरिः सार्वधातुके (सू० २२, ६५, ७०)। अथर्ववेदप्रातिशाख्य- इति सार्वधातुके (२।४।२)। । अर्वाचीन व्याकरणों में एतदर्थ 'ग' आदि संज्ञाओं का व्यवहार किया गया है। जैसे - जैनेन्द्रव्याकरण - मिङ् शिद् गः (२।४।९५)। हैमशब्दानुशासन - एताः शितः (३।३।१०)। मुग्धबोधव्याकरण- पञ्च रः शिच्च (सू० ५३०) ।।४५० । ॥ इति कातन्त्रव्याकरणे तृतीये आख्याताध्याये सम्पादकीयः समीक्षात्मकः परस्मैपदाख्यः प्रथमः पादः समाप्तः॥
SR No.023089
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy