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________________ ५३८ कातन्त्रव्याकरणम् [वि०प०] कार्या० । अथ औपगवः' इति किमित्युदाहृतम्, “ओ अव्” (१/२/१४) इत्यस्त्येव, नैतदेवम् । अन्तर्वर्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदसंज्ञायाम् “एदोत्परः" (१/२/ १७) इत्यादिवचनादोकारादकारलोपः स्यात् । तथा बाहोपरत्यं बाहवः , नावा तरति नाविकः इत्यादौ यदि सन्धिलक्षणेनावावौ क्रियेते तदा "अयादीनां यवलोपः” (१/ २/१६) इत्यादिना वलोपः स्यात् । अनेन तु कृते न भवति, प्रकरणान्तरत्वात् । तर्हि ओदौतोरवावाविति कथन्न कृतम् इति न देश्यम्, श्लोकपूरणत्वात् ।।४१४। [समीक्षा] 'उपगो +अण्, गो+यत्, नौ +य' इस अवस्था ओ को अव् तथा औ को आव् आदेश करके दोनों ही शाब्दिकाचार्यों ने 'औपगवः, गव्यम्, नाव्यम्' रूप सिद्ध किए हैं | पाणिनि का एतद्विषयक सूत्र है - "वान्तो यि प्रत्यये' (अ० ६/१/७९) । इस प्रकार उभयत्र साम्य ही परिलक्षित होता है। [रूपसिद्धि] १. औपगवः । उपगोरपत्यं पुमान् । उपगु +अण् +सि | "वाऽणपत्ये' (२/६/ १) से अण् प्रत्यय, ण् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, “वृद्धिरादौ सणे" (२/६/४९) से आदि स्वर की वृद्धि, "उवर्णस्त्वोत्वमापाद्यः' (२/६/४६) से उ को ओ, प्रकृत सूत्र से ओ को अवादेश तथा विभक्तिकार्य । २. गव्यम् । गोर्विकारः । गो + यत् + सि । “यदुगवादितः' (२/६/११) से यत् प्रत्यय, त् अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, प्रकृत सूत्र से ओ को अव् तथा विभक्तिकार्य । ३. नाव्यम् । नावा तार्यम् । नौ +य +सि | "नावस्तार्ये' (२/६/९) से यप्रत्यय, प्रकृत सूत्र से औ को आव् आदेश तथा विभक्तिकार्य ।।४१४। ४१५. वृद्धिरादौ सणे [२/६/४९] [सूत्रार्थ] तद्धितसंज्ञक णकारानुबन्ध वाले प्रत्यय के परे रहने पर पूर्ववर्ती शब्द में आदि स्वर को वृद्धि आदेश एवं आकार आदेश भी होता है || ४१५।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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