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________________ ४९१ नामचतुष्टयाध्याये षष्ठस्तद्धितपादः ३८४. त्रेस्तृ च [२।६।१८] [सूत्रार्थ] 'त्रि' शब्द से पूरण अर्थ में 'तीय' प्रत्यय तथा 'त्रि' के स्थान में 'तृ' आदेश होता है ||३८४। [दु० वृ०] त्रेः पूरणेऽर्थे तीयो भवति त्रादेशश्च । त्रयाणां पूरणस्तृतीयः ।।३८४ । [दु० टी०] त्रेस्तृ० । 'तृ च' इत्यविभक्तिनिर्देशनाङ्गीकृतेनादेशोऽयं न प्रत्ययः । यथा “हनस्त च, गमस्त च" (४।२।२२; ४।४९) इति ।।३८४/ [क० च०] त्रेस्तृ० । ४ चेत्यविभक्तिनिर्देशप्रयलादादेशोऽयं न तु प्रत्यय इति सूचितम् ! यथा "हनस्त च" (४।२।२२) इति टीका ।।३८४ । [समीक्षा] पूरण अर्थ में 'त्रि' शब्द से 'तृतीयः' रूप से साधनार्थ पाणिनि तीय प्रत्यय तथा रेफ को सम्प्रसारण करते हैं - "त्रेः सम्प्रसारणं च" (अ०५।२।५५)।कातन्त्रकार ने साक्षात् 'तृ' आदेश का विधान किया है । सम्प्रसारणविधि में पाणिनि को इकार का “सम्प्रसारणाच्च" सूत्र से पूर्वरूप भी करना पड़ता है । अतः पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव सन्निहित है। [रूपसिद्धि] १. तृतीयः । त्रयाणां पूरणः । त्रि+तीय + सि । प्रकृत सूत्र से तीयप्रत्यय तथा त्रि को 'तृ' आदेश एवं विभक्तिकार्य ।। ३८४ । ३८५. अन्तस्थो डे !ः [२।६।१९] [सूत्रार्थ] रकारान्त तथा षकारान्त संख्यावाचक शब्दों के अन्त में 'थ' आगम होता है 'ड' प्रत्यय के पर में रहने पर ।।३८५।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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