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________________ नामचतुष्टयाध्याये पञ्चमः समासपादः विस्तीर्य हि महज्ज्ञानमृषिः संक्षेपतोऽब्रवीत् । इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् ॥ (नि० - दु० भा० ४।१।१; म० भा० १।५।१)। व्याकरणशास्त्र में इसीलिए समास और वाक्य समादृत हैं | समास में संक्षेप और वाक्य में विस्तार स्पष्टरूप में देखा जाता है । जैसे 'राजन् + ङस् + पुरुष + सु' में समास होने पर ‘राजपुरुष' रूप निष्पन्न होता है । यहाँ 'ङस् + सु' का लुक् (सुपो धातुप्रातिपदिकयोः- अ० २।४।७१) हो जाने से संक्षेप हो जाता है। आचार्य शर्ववर्मा ने समास की परिभाषा की है, तदनुसार दो या उनसे अधिक स्याद्यन्त पदों के मिलकर एक हो जाने को समास कहते हैं - "नाम्नां समासो युक्तार्थः' (२।५।१), परन्तु पाणिनि ने समास का कोई अर्थ नहीं दिया है, केवल अधिकार के रूप में ही समास को प्रस्तुत किया है - "प्राक् कडारात् समासः" (अ० २।१३)। वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने वाक्य - समास की प्रक्रिया को मन्दमति व्यक्तियों के अवबोधार्थ एक उपायमात्र बताया है अबुधं प्रत्युपायाश्च विचित्राः प्रतिपत्तये। शब्दान्तरत्वादत्यन्तं भेदो वाक्यसमासयोः॥ (वा० प० ३।१४।४९)। समास को एकार्थीभाव भी कहते हैं | वाक्य में प्रयुक्त अनेक पदों के अर्थ इसमें एकरूप हो जाते हैं । यह प्रक्रिया विविध वृत्तिधर्मों के प्रयोग से होने वाले गौरव को दूर करने के उद्धेश्य से व्यवहार में लाई जाती है - बहूनां वृत्तिधर्माणां वचनैरेव साधने। स्यान्महद् गौरवं तस्मादेकार्थीभाव आस्थितः॥ ___ (वै० भू० सा०, का० ३३)। यह ज्ञातव्य है कि संक्षेप करने के लिए कम से कम दो शब्दों की आवश्यकता होती है और जब इनमें समास उपपन्न होता है तब यह विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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