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________________ २० कातन्त्रव्याकरणम् उल्लेख, महाभाष्यकार द्वारा अपादान के कारकत्व का अक्षुण्ण होना, वैयाकरणों का शब्दविषयक प्रामाण्य, हेमकर आदि आचार्यों के विविध विचार] । ३. सम्प्रदानसंज्ञा पृ० सं० ४५-५७ [पाणिनि के एतदर्थ ९ सूत्र, कातन्त्र में एक ही सूत्र, शेष अर्थों का व्याख्याबल से ग्रहण, सम्प्रदान के तीन भेद, नाट्यशास्त्र में सम्प्रदान का उल्लेख, लोकव्यवहारानुरोध से सम्प्रदानसंज्ञा का प्रयोग, जैनेन्द्र – शाकटायनहेमचन्द्र-मुग्धबोध-अग्निपुराण-नारदपुराण तथा शब्दशक्तिप्रकाशिका में इसका व्यवहार]। ४. अधिकरणसंज्ञा पृ० सं० ५७ - ६६ [पाणिनीय तथा कातन्त्र दोनों ही व्याकरणों में आधार की अधिकरणसंज्ञा, साक्षात् संबन्ध से क्रिया का कर्ता तथा कर्म में रहना, परम्परा से क्रिया के आधार की अधिकरणसंज्ञा, अधिकरण के तीन भेद, अधिकरण के सोदाहरण छह भेद, वररुचि-मत का निरसन, नाट्यशास्त्र में प्रभृतिशब्द से अधिकरण का उपादान, भाष्यव्याख्याप्रपञ्चकार द्वारा प्रस्तुत भागुरिमत, जैनेन्द्र-हेमचन्द्र - मुग्धबोधव्याकरण - अग्निपुराण - नारदपुराण तथा शब्दशक्तिप्रकाशिका में अधिकरण का प्रयोग, न्यासकार आदि विविध आचार्यों के मत] । ५. करणसंज्ञा पृ० सं० ६६-७१ [ क्रिया की सिद्धि में अपेक्षित अनेक साधनों में से कर्ता जिस साधन को अन्तरङ्ग समझकर उससे कार्य करने का निश्चय करता है, उसकी पाणिनीय तथा कातन्त्र में करणरज्ञा, करण के दो भेद - बाह्य तथा आभ्यन्तर, नाट्यशास्त्र में प्रभृतिनिर्देश से करण का उपादान, करण की अन्वर्थता, जैनेन्द्र आदि अर्वाचीन व्याकरणों में करण संज्ञा का प्रयोग] । ६. कर्मसंज्ञा पृ० सं०७१ - १०० [फल के आश्रय की कर्मता, पाणिनि के कर्मसंज्ञाविधायक पाँच सूत्र, कातन्त्रकार का एक सूत्र, शेष की अनावश्यकता का प्रतिपादन, तीन प्रकार का कर्म, निवर्त्य - विकार्य - प्राप्य कर्म का अर्थ, क्रियाप्रधान आख्यात, पदमात्र में
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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