SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः १५७ भवतीति वाक्यभेदप्रसङ्गात् प्रसज्यार्थो न गृह्यते इत्याह -अनादर इति किम् ? अश्मानमित्यादि वृत्तिः। अश्मानं दृशदं मन्ये मन्ये काष्ठमुदूखलम् । अन्धायास्तं सुतं मन्ये यस्य माता न पश्यति ॥ इति पादत्रयम् । [कर्माधिकारे पुनः कर्मग्रहणं किमर्थम्, प्रधानादेव कर्मणस्तृणादेर्द्वितीयाचतुर्यो भवतः, तृणादिकस्य प्रधानत्वमनादरबोधकत्वात् 'देवदत्तं तृणाय मन्ये, तृणाय मत्वा ताः सर्वाः' इत्यादयः सिद्धाः । अत एव पाणिनिः “मन्यकर्मण्यनादरे उपमानाद्' विभाषा" (अ० २।३।१७)। अप्राणिनीति उपमानात् तृणादेरयं विधिः] ।।३१०। [समीक्षा] 'मन्' धातु के जिस कर्म से अनादर सूचित होता हो, उसमें द्वितीया तथा चतुर्थी विभक्तियों का विधान पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ही आचार्य करते हैं | पाणिनि का सूत्र है - "मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु" (अ० २।३।१७) अन्तर केवल यह है कि कातन्त्रकार साक्षात् दोनों ही विभक्तियों का निर्देश करते हैं, जबकि पाणिनि ने विकल्प से चतुर्थी का विधान किया है । उसके फलस्वरूप पक्ष में द्वितीया भी प्रवृत्त होती है । अतः प्रायः साम्य ही कहा जा सकता है। [रूपसिद्धि] १. न त्वा तृणं मन्ये, न त्वा तृणाय मन्यते । यहाँ तृण शब्द से अनादर = तिरस्कार सूचित होता है और वह 'मन' धातु का कर्म भी है । अतः उससे द्वितीया-चतुर्थी दोनों विभक्तियाँ प्रवृत्त होती हैं - तृणम्, तृणाय । कोई पुरुष चाहे जितना शक्तिहीन क्यों न हो, तृण की अपेक्षा तो उसमें अधिक ही शक्ति होती है । फिर भी यदि उसे तृण के भी समान स्वीकार न किया जाए तो उससे अनादर का ही भाव सिद्ध होता है - इस विशेषता को बताने के लिए ही द्वितीया के अतिरिक्त चतुर्थी का विधान किया गया है। १. मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु (अ० २।३।१७)
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy