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________________ १३८ कातन्त्रव्याकरणम् प्रतिनिधिप्रतिदानयोर्वर्तमानेन प्रतिना योगे षष्ठ्यर्थे पञ्चमीति केनचिद् उक्ता । मुख्यस्य सदृशः प्रतिनिधिः । प्रतिदानं विनिमयः । यथा अभिमन्युरर्जुनवत्, प्रतिमाषान् अस्मै तिलेभ्यः प्रयच्छति । अस्यार्थः- अर्जुनस्य प्रतिनिधिरयमभिमन्युः। तिलानां प्रतिमाषान् अस्यै ददातीति ? यतो हि क्रियारम्भः, सोऽपाय इत्यवधिभावात् पञ्चमी सिद्धैवेति टीका । एतेन प्रतिनिधिप्रतिदानयोः प्रतिनेति यत्. श्रीपत्युक्तं तदपि हेयम् । योगग्रहणाभावेऽपि विशिष्टयोगो लभ्यते, अन्यत्र विशेषविधेराघ्रातत्वात् ? सत्यम् । आङ्ग्रहणं योगग्रहणं च सुखार्थमेव || ३०५ । [समीक्षा] पाणिनि ने “अपपरी वर्जने" (अ० १।४।८८) से वर्जन अर्थ में 'अप-परि' की, “आङ् मर्यादावचने" (अ० १।४।८९) से मर्यादा-अभिविधि अर्थ में आङ् की तथा “अधिपरी अनर्थकौ" (अ० १।४।९३) से अनर्थक परि की कर्मप्रवचनीय संज्ञा करके उनके योग में “पञ्चम्यपापरिभिः" (अ० २।३।१०) से पञ्चमी का विधान किया है, परन्तु शर्ववर्मा ने विना ही कर्मप्रवचनीय संज्ञा किए प्रकृत सूत्र से पञ्चमी विभक्ति की है | "कर्मप्रवचनीयैश्च" (२।४।२३) सूत्र से कर्मप्रवचनीय के योग में द्वितीयाविधान करके शर्ववर्मा ने भी कर्मप्रवचनीय को स्वीकार अवश्य किया है । अतः यदि प्रकृत सूत्र में भी अप-आङ् परि की कर्मप्रवचनीय संज्ञा स्वीकार कर ली जाए तो सूत्रकार के तात्पर्यानुरूप ही होगी । [रूपसिद्धि] १. परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः। वर्जन अर्थ में 'परि' की कर्मप्रवचनीय संज्ञा तथा उसके योग में 'त्रिगर्त" शब्द में प्रकृत सूत्र से पञ्चमी । “धुटि बहुत्वे त्वे" (२।१।१९) से अकार को एकार एवं भ्यस्-प्रत्ययस्थ सकार को “रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से विसगदिश । २. अप पाटलिपुत्राद् वृष्टो देवः। वर्जन अर्थ में 'अप' की कर्मप्रवचनीयसंज्ञा तथा प्रकृत सूत्र से 'पाटलिपुत्र' में पञ्चमी । पञ्चमी-एकवचन 'सि' प्रत्यय के स्थान में "ङसिरात्" (२।१।२१) से आत् आदेश, समानलक्षण दीर्घ एवं परवर्ती आका' का लोप ।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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