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________________ १३४ कातन्वव्याकरणम् ज्ञापकान्निमित्तमात्रात् सप्तमी मन्तव्येति । येन विनेति उद्देश्येन विनेत्यर्थः । सीमा अण्डकोषः । पुष्यलको गन्धमृगः । तथा च ('पुष्यलको गन्धमृगे तृणवृक्षविशेषयोः सीमाण्डकोषः ख्यातो मर्यादासदृशयोरपि') इति । चर्मैव धारयति अवस्थापयतीत्यर्थः । 'ग्रामान्त उपशल्यं स्यात् सीमसीमे स्त्रियामुभे' (अ० को० २।२।२०) इति अमरदर्शनात् सीम्नि सीमायाम्, पुष्यलको वृक्षविशेष इति कश्चित् ।। ३०४ । [समीक्षा] पाणिनि ने अष्टाध्यायी में कर्म कारक में द्वितीया, करण कारक में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान मे पञ्चमी, स्वाम्यादि संबन्ध में षष्ठी तथा अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति के विधानार्थ पृथक् पृथक् सूत्र बनाए हैं - "कर्मणि द्वितीया, चतुर्थी सम्प्रदाने, कर्तृकरणयोस्तृतीया, अपादाने पञ्चमी, सप्तम्यधिकरणे च, षष्ठी शेषे" (अ० २।३।२, १३, १८, २८, ३६, ५०) । आचार्य शर्ववर्मा ने एक ही प्रकृत सूत्र से कर्मादि कारकों में द्वितीया विभक्ति के विधान का निर्देश किया है । अतः सामान्यतया कातन्त्रीय निर्देश में लाघव संनिहित है। [रूपसिद्धि] १. कटं करोति। कट + अम् | “यत् क्रियते तत् कर्प" (२।४।१३) से कट की कर्मसंज्ञा तथा उसमें द्वितीया विभक्ति का विधान । द्वितीया-एकवचन अम् प्रत्यय तथा “अम्शसोरादिलॊपम्' (२।१।४७) से अकार का लोप | २. परशुना छिनत्ति । परशु+टा | “येन क्रियते तत् करणम्" (२।४।१२) से 'परशु' की करणसंज्ञा तथा उसमें प्रकृत सूत्र से तृतीया । तृतीया - एकवचन 'टा' प्रत्यय के स्थान में "टा ना" (२।१।५३) से ना- आदेश | ३. गुरवे गां ददाति । गुरु + डे । “यस्मै दित्सा रोचते धारयते वा तत् सम्प्रदानम्" (२।४।१०) से गुरु की सम्प्रदानसंज्ञा तथा प्रकृत सूत्र से उसमें चतुर्थी विभक्ति । एकवचन-डे प्रत्यय के परे रहते "डे" (२।१।५७) सूत्र से उ को ओ तथा “ओ अव्" (१।२।१४) से ओ के स्थान में 'अव्' आदेश । ४. वृकाद् भयम् । वृक + ङसि । “यतोऽपैति भयमादत्ते वा तदपादानम्" (२।१।८) से वृक की अपादानसंज्ञा तथा प्रकृत सूत्र से पञ्चमी विभक्ति । एकवचन
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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