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________________ नामचतुष्टयान्याये द्वितीयः सखिपादः [समीक्षा] 'ददन्त् + जस्, जक्षन्त् + जस्' इस अवस्था में कातन्त्रकार ने वैकल्पिक नकारहीनता का विधान करके नपुंसकलिङ्ग में ‘ददति - ददन्ति, जक्षति - जक्षन्ति' ये दो-दो रूप साधु माने हैं । पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार शतृ-प्रत्यय यद्यपि नकाररहित किया जाता है, तथापि "उगिदगं सर्वनामस्थानेऽधातोः" (अ०७।१।७०) से प्राप्त नुमागम का निषेध तो "नाभ्यस्ताच्छतुः" (अ० ७१।७८) से करना ही पड़ता है । तदनुसार निषेध के कारण ‘ददति' आदि नकार-रहित ही शब्दरूप निष्पन्न होंगे, ऐसा न हो किं च दो- दो रूप (नकाररहित - नकारसहित) सिद्ध हों - एतदर्थ "वा नपुंसकस्य" (अ०७।१।७९) सूत्र द्वारा वैकल्पिक नुमागम किया गया है । इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया गौरवाधायिका है। [रूपसिद्धि] १. ददति- ददन्ति । ददन्त् + जस्, शस् । “जस्शसौ नपुंसके' (२।१।४) से 'जस्-शस्' प्रत्ययों की घुटसंज्ञा, "जस्शसोः शिः" (२।२।२०) से 'शि' आदेश तथा प्रकृत सूत्र द्वारा वैकल्पिक नकारहीनता - ददति । नकारहीनता के अभाव में नकारघटित प्रयोग - ददन्ति । २. जक्षति- जक्षन्ति । जक्षन्त् + जस्, शस् । पूर्ववत् घुट्संज्ञा, शि -आदेश तथा वैकल्पिक नकारहीनता ।। १८६। ३. जाग्रति- जाग्रन्ति । जाग्रन्त् + जस्, शस् । पूर्ववत् घुट्संज्ञा, शि-आदेश, वैकल्पिक नकारहीनता ।। १८६। १८७. तुदभादिभ्य ईकारे [२।२।३१] [सूत्रार्थ] तुदादि तथा भादि से परवर्ती अन्ति विकल्प से नकाररहित होता है, ईकार के परे रहते ।। १८७। [दु० वृ०] तुद इत्यदन्तोऽनुक्रियते ! तुदभादिभ्यः परोऽन्तिरनकारको भवति ईकारे परे । तुदती, तुदन्ती स्त्री । तुदती, तुदन्ती कुले । भाती, भान्ती स्त्री । भाती, भान्ती कुले । तुदभादिभ्य इति किम् ? पचन्ती, दीव्यन्ती ।। १८७।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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