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________________ २१० कातन्त्रव्याकरणम् [समीक्षा] ‘अन्य + सि, अम् । अन्यतर + सि, अम् । इतर+ सि, अम् । कतर + सि, अम् । कतम + सि, अम्' इस अवस्था में कातन्त्रकार 'सि- अम्' का लोप - 'तु' आगम करके‘अन्यत्, अन्यतरत्, इतरत्, कतरत्, कतमत्' शब्दरूप सिद्ध करते हैं । पाणिनि ने एतदर्थ “अद्ङ्ग्डतरादिभ्यः पञ्चभ्यः " (अ० ७ । १ । २५ ) से सु-अम् को 'अद्ड्' आदेश तथा ‘डित्त्वाट्टिलोप' का विधान किया है । टिलोप के कारण हस्वान्त रूप न रहने से “एड्हस्वात् संबुद्धेः " ( अ० ६ । १ । ६९) द्वारा - 'हे अन्यत्' इत्यादि में 'तू' का लोप नहीं होता । इस प्रकार पाणिनि ने ‘सु- अम्' प्रत्ययों के स्थान में 'अद्ड्' आदेश करके यद्यपि कातन्त्रकारीय दो कार्यों (लोप तथा तु- आगम ) की अपेक्षा लाघव दिखाया है, तथापि 'सु-अम्' के स्थान में आदेश (अद्ड् ) करने पर संबुद्धि में संभाव्य लोप के निवारण हेतु 'डू' अनुबन्ध की योजना तथा उससे होने वाले अन्य फलों का जो निरूपण करना पड़ता है, उसकी अपेक्षा कातन्त्रकार द्वारा दर्शित लोप तथा आगम रूप दो कार्यों की प्रक्रिया से लाघव प्रतीत होता है । व्याख्याकारों ने सूत्रस्थ 'तु' शब्द का पाठ पूर्वसूत्रवर्ती 'असंबुद्धि' पद के निवृत्त्यर्थ माना है | अतः 'हे अन्यत्' आदि में भी लोप - आगम होते हैं । [रूपसिद्धि] १. अन्यत् । अन्य + सि, अम् । प्रकृत सूत्र द्वारा 'सि- अम्' प्रत्ययों का लोप, तु - आगम, “आगम उदनुबन्धः स्वरादन्त्यात् परः " ( २।१।६ ) के न्यायानुसार यकारोत्तरवर्ती अकार स्वर के बाद उसकी योजना । २-५. अन्यतरत्, इतरत्, कतरत्, कतमत् । अन्यतर + सि, अम् । इतर+ सि, अम् । कतर + सि, अम् । कतम + सि, अम् । पूर्ववत् प्रकृतसूत्र द्वारा 'सि- अम्' प्रत्ययों का लोप, तु-आगम || १६४| १६५. औरीम् [ २।२।९] [सूत्रार्थ] नपुंसकलिङ्ग वाले सभी शब्दों से परवर्ती 'औ' प्रत्यय के स्थान में 'ई' आदेश होता है || १६५ |
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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