SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥श्रीः॥ विषयानुक्रमणी नामचतुष्टयप्रकरणे प्रथमो धातुपादः १. लिङ्गसंज्ञा पृ० १- २२ [धातु-प्रत्ययवर्जित अथवान् शब्दों की लिङ्गसंज्ञा, पाणिनीय 'प्रातिपदिक' इस महती संज्ञा की अपेक्षा शार्ववर्मिक 'लिङ्ग' सञ्ज्ञा का लघुसंज्ञात्व, एक या दो अक्षरों वाली संज्ञा लघुसंज्ञा तथा इससे अधिक अक्षरों वाली महासंज्ञा, महती संज्ञा का प्रयोजन, उसकी अन्वर्थता, विशिष्ट अर्थ में व्यवहारार्थ शक्तिनियमन करने के लिए संज्ञा का प्रयोग , लिङ्ग' शब्द का यौगिकार्थ, नाम = प्रातिपदिक में अभेद, पूर्वाचार्यों द्वारा 'लिङ्ग' का व्यवहार, अर्वाचीन आचार्यों द्वारा तदर्थ 'प्रातिपदिकनाम - मृत् - लि' संज्ञाओं का प्रयोग, 'अर्थ' शब्द के चार अर्थ-अभिधेय, निवृत्ति, प्रयोजन और धन, वर्णों की अर्थवत्ता-अनर्थकता, शब्दार्थविषयक ३ पक्ष - जाति, द्रव्य तथा उभय, शब्द के चार भेद-जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया, विविध व्याख्याकारों का उल्लेख] २. स्यादि विभक्तियों का प्रयोग पृ० २२-२८ [विभक्ति का यौगिकार्थ, प्राचीन तथा अर्वाचीन प्रयोग, कातन्त्रकार द्वारा विभक्ति संज्ञा का प्रयोग किए विना ही विभक्ति का व्यवहार, वृत्तिकार द्वारा स्यादि २१ प्रत्ययों का परिगणन, पाणिनीय “ड्याप्प्रातिपदिकात्" (अ० ४/१/१) सूत्र में 'ड्याप्'- पाठ की अनावश्यकता] ३. घुटु संज्ञा पृ० २८-३३ [सि, औ, जस, अम्, औ तथा नपुंसकलिङ्ग में जस्-शस् की घुट् संज्ञा, पाणिनि-द्वारा 'सर्वनामस्थान' इस महती संज्ञा के प्रयोग से पूर्वाचार्यों का उपहास एवं महती संज्ञा का गौरव]
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy