SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नामचतुष्टयाप्याये प्रथमो धातुपादः १२९ परयोरिति। एवं तर्हि 'अम्शसोरलोपम्' इत्यास्तामिति चेत् ? सत्यम् । आदिग्रहणं सुखप्रतिपत्त्यर्थमेव ।। १२६ । [क० च०] अम्शसोः । ननु आदिशब्दस्य सामीप्यार्थे गृहीते नद्या आदिभूतस्य समीपस्य लोपो भविष्यति । अतः षष्ठ्यपि संगच्छते इत्याह - अथवेति । अथ 'अम्शसोर्मसौ' इति कृते सिध्यति गुरुकरणं वैचित्र्यार्थम् । इह नदी (इहादि)- ग्रहणं समानमात्रोपलक्षणार्थम् । तेन 'वातप्रमीम्, वातप्रमीन् । देवयजीम्, देवयजीन् । अतिलक्ष्मीम्, अतिलक्ष्मीन् । बहुश्रेयसीम् , बहुश्रेयसीन् ।बहुचमूम्, बहुचमून्' इत्यादिषु अनदीसंज्ञकेकारोकाराभ्यामपि अम्शसोरादिर्लोपः । निरुक्तलक्षणः सस्य च नः। आदिग्रहणं सुखार्थमिति । वररुचिस्त्वाह -आदिग्रहणं क्वचिज्जसोऽपि आदिलोपार्थम् । तेन ‘धीवरीः, पीवरीः, सरस्वतीः, फलिनीः, फलवतीः, ओषधीः' इत्याद्याचष्टे । तन्न, अपाणिनीयत्वात् । अत एव सुखार्थमिति ।। १२६ । [समीक्षा] 'नदी + अम्, नदी +शस् (अस्)' इस अवस्था में कातन्त्रकार 'अम् - शस्' प्रत्ययों के आदि अवयव अकार का लोप करके नदीम्, नदीः' आदि शब्दरूप सिद्ध करते हैं। पाणिनि ने 'अम्' प्रत्यय के परवर्ती होने पर "अमि पूर्वः" (अ० ६।१।१०७) से पूर्वरूप तथा 'शस्' प्रत्यय के परे रहते “प्रथमयोः पूर्वसवर्णः" (अ० ६।१।१०२) से पूर्वसवर्ण दीर्घ का विधान किया है। इससे पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है। व्याख्याकारों ने 'अम्शसोर्मसौ, अम्शसोरलोपम्' ये दो न्यासान्तर इस सूत्र के बताए हैं और सूत्रकार द्वारा तादृश सूत्रपाठ न किए जाने का कारण भी प्रस्तुत किया है । कलापचन्द्रकार सुषेण वियाभूषण ने वररुचि के एक मत का यह कहकर खण्डन किया है कि वह अपाणिनीय है। [रूपसिद्धि] १. नदीम् । नदी + अम् । "ईदूत स्त्र्याख्यो नदी" (२।१।९) से ईकार की नदीसंज्ञा तथा प्रकृत सूत्र द्वारा 'अम्' प्रत्यय के आदि अवयव 'अ' का लोप ।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy