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________________ प्रास्ताविकम् है । कुछ विद्वान् इन्हें विक्रम के बाद में तथा भगत एवं विक्रम से पूर्व रखते हैं । २. शूद्रक ने अपने पद्मप्राभृतक भाग में कातन्त्रव्याकरण जान चली चर्चा की है । उन पर आक्षेप करते हुए कहा गया है कि वे वैयाकरण-पार हैं । अतः उनमें मेरी आस्था नहीं हो सकती - " एषोऽस्मि बलिभुग्भिरिव संघातवलिभिः कातन्त्रिकैरवस्कन्दितः इति । हन्त ! प्रवृत्तं काकोलूकम् । सखे ! दिष्ट्या त्वामलूनपक्षं पश्यामि । किं ब्रवीषि ? का चेदानीं मम पैयाकरणपारशवेषु कातन्त्रिकेष्वास्था" (पृ०१८) अस्तु, शूद्रक और हाल नामक आन्ध्रदेशीय राजा सातवाहन समकालिक थे, जिन्हें युधिष्ठिर मीमांसक ४०० से ५०० वर्ष विक्रमपूर्व रखते हैं । ३. राजा सातवाहन का सम्बन्ध नागार्जुन से भी रहा है। कहा जाता है कि. नागार्जुन की रसायनविद्या के बल पर सातवाहन की मृत्यु नहीं हो पा रही थी, इस कारण राजकुमार को राजा बनने का अवसर नहीं मिल पा रहा था । इस प्रसङ्ग नागार्जुन से वार्ता की गई। उन्होंने अपनी मृत्यु का उपाय बताया। उनकी मृत्यु हो जाने पर सातवाहन का भी प्राणान्त हो गया और इस प्रकार राजकुमार को अभीष्टलाभ हुआ । इस सन्दर्भ से कातन्त्रकार का भी लगभग वही समय होना चाहिए, जो आचार्य नागार्जुन का माना जाता है । ४. पाणिनीय व्याकरण के द्वितीय मुनि कात्यायन ने वार्त्तिकों में तथा तृतीय मुनि पतञ्जलि ने महाभाष्य में पूर्वाचार्यों की अनेक संज्ञाएँ उद्धृत की हैं। जैसेअद्यतनी, श्वस्तनी, भविष्यन्ती, परोक्षा, कारित, विकरण और समानाक्षर आदि । ये सभी संज्ञाएँ कलापव्याकरण में प्रयुक्त हैं । ह्यस्तनी, वर्तमाना तथा चेक्रीयित आदि अन्य भी प्राचीन संज्ञाएँ कातन्त्रव्याकरण में मिलती हैं । इससे कातन्त्रव्याकरण की पर्याप्त प्राचीनता सिद्ध होती है । ५. प्रदीपकार कैयट ने सिद्ध किया है कि पूर्वाचार्य स्थानी कार्यका निर्देश प्रथमान्त करते थे, जबकि पाणिनि ने षष्ठ्यन्त किया है । कलापव्याकरण में अधिकांश स्थानी प्रथमान्त ही पठित हैं । यद्यपि कुछ निर्देश पाणिनीय व्याकरण में भी प्रथमान्त ही प्राप्त हैं, तथापि व्याख्याकार उन्हें अविभक्तिक निर्देश स्वीकार करते हैं । जैसे- 'अल्लोपोऽनः " ( ६ |४| १३४) का अत् और " ति विंशतेर्डिति " ( ६ । ४ । १४२) का ति । कलापव्याकरण के कुछ स्थानी इस प्रकार हैं - " समानः "" =
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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