SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कातन्त्रव्याकरणम् अघोषसंज्ञा, वर्गीय तृतीय-चतुर्थ-पञ्चम-य-र-ल्-व्-ह्' वर्गों की घोषवत् संज्ञा, 'छुञ्-ण-न-म्' वर्गों की अनुनासिक संज्ञा, 'य्-र-ल-व्' वर्गों की अन्तस्था संज्ञा तथा 'श्-ष्-स्-ह' वर्गों की ऊष्म संज्ञा विहित है | पाणिनि ने अघोष के लिए खर् तथा घोषवत् के लिए हश् प्रत्याहार का व्यवहार किया है | स्वर के बाद आने वाले ऊपर-नीचे दो बिन्दुओं की विसर्जनीय संज्ञा, क्-ख् वर्गों से पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में होने वाले वज्राकृति वर्ण की जिह्वामूलीय संज्ञा, प-फ् वर्गों से पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में होने वाले गजकुम्भाकृति वर्ण की उपध्मानीय संज्ञा तथा स्वर के बाद आने वाले एक बिन्दु की अनुस्वार संज्ञा सूत्रों में निर्दिष्ट है । अर्थवान् प्रकृति-विभक्ति के समुदित रूप की पदसंज्ञा कातन्त्रव्याकरण में पूर्वाचार्यों के अनुसार परिभाषित हुई है, जब कि पाणिनि सुबन्त-तिङन्त रूपों की पदसंज्ञा स्वीकार करते हैं । ऐन्द्र व्याकरण में पदसंज्ञा करने वाला सूत्र था - "अर्थः पदम्"। इस प्रकार कातन्त्रकार ने बीस सूत्रों द्वारा बीस संज्ञाएँ करने के बाद तीन परिभाषाएँ दी हैं । प्रथम परिभाषा के अनुसार लेखनादि में व्यञ्जन को परवर्ती वर्ण से सम्बद्ध करना चाहिए, स्वर को नहीं । द्वितीय परिभाषा में कहा गया है कि 'वैयाकरणः, उच्चकैः' आदि शब्दों में सम्मिलित वर्गों का विभाग विना ही अतिक्रमण (हेर-फेर) किए करना चाहिए |तृतीय परिभाषा में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निर्देश है कि जिन शब्दों का साधुत्वविधान सूत्रों द्वारा नहीं हुआ है, उनकी सिद्धि लोकव्यवहार के अनुसार जान लेनी चाहिए – “लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः" (१।१।२३) । पाणिनीय व्याकरण में इस निर्देश के लिए सूत्र है - "पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्" (६।३।१०८)। द्वितीय पाद में दीर्घ, ए-ओ, अर्-अल्-ऐ-औ, य्-व्-र्-ल्, अय्-आय्-अव्आव्, य्-व्लोप, अलोपविधि तथा अन्त में एक परिभाषावचन दिया गया है, जिसके अनुसार व्यञ्जन वर्ण के पर में रहने पर स्वरवर्गों में कोई सन्धि नहीं होती । 'दण्डाग्रम्, मधूदकम्' में पाणिनीय व्याकरण के अनुसार दो वर्गों के स्थान में दीर्घ- रूप एकादेश होता है, परन्तु कातन्त्रकार ने समानसंज्ञक वर्ण के स्थान में दीर्घ का विधान किया है सवर्णसंज्ञक वर्ण के पर में रहने पर तथा उस सवर्णसंज्ञक वर्ण का लोप भी हो जाता है - "समानः सवर्णे दीर्घाभवति परश्च लोपम्” (१।२।१)। इसी प्रकार कातन्त्रकार ने अवर्ण के ही स्थान में ए-ओ-अर-अल् आदेश किए हैं तथा परवर्ती इवर्णादि का लोप । ज्ञातव्य है कि पाणिनि की गुणविधि भी दो वर्गों के स्थान में एकादेश रूप है । पाणिनि ने जहाँ इक् के स्थान में यण आदेश किया है, वहाँ
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy