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________________ सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः २६७ हन्यते' इति न्यायादित्यर्थः । ननु लोपग्रहणं न क्रियताम्, पूर्वसूत्रादेव लोपानुवृत्तिर्भविष्यति इत्याशङ्क्याह – नन्विति । अनन्तरत्वादित्यादि । ननु तथापि ‘अन्यस्वरे यं वा' इति कृतेऽनन्तरत्वाल्लोप्य एवानुवर्तिष्यते इत्याह- किं चेति। अन्यः पुनरेकस्मिन् सूत्रे आनतयं नास्तीत्याह-किंचेति । कार्यद्वारेणेति ।अत्र हेमकरः - इदं तु प्रथमकक्षायामेवोक्तं वाशब्दस्य सम्बन्धेन यकारस्य गौणत्वादेव नेहानुवृत्तिः। लोपग्रहणं तु शङ्कामात्रनिरासार्थमेवेत्याचष्टे |तन्न | वाशब्देन सहैवानुवर्तने गौणत्वाभावाल्लोपग्रहणं विना कथं वाशब्दनिवृत्तिः । तस्माद् यदुक्तं पञ्जीकृता तदेव माध्विति ।।७२ । [समीक्षा] ___'देवाः + गताः, भोः+ यासि, भगोः + व्रज, अघोः+ यज' इत्यादि स्थलों में कातन्त्रकार विसर्ग का लोप करके 'देवा गताः, भो यासि' इत्यादि प्रयोगों की सिद्धि बताते हैं । यहाँ पाणिनि ने सकारस्थानिक रु को य् आदेश और उसका लोप विहित किया है । इससे कातन्त्रीय प्रक्रिया का लाघव और पाणिनीय प्रक्रिया का गौरव स्पष्ट है ।। [विशेष] विगत सूत्र “अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं वा" (१।५।९) से लोप की अनुवृत्ति संभव होने पर भी प्रकृत सूत्र में लोप पद इसलिए पढ़ा गया है कि "एकयोगनिर्दिष्टानां सहैव वा प्रवृत्तिः सहैव वा निवृत्तिः" (सं० बौ० वै०, पृ० २२०) इस न्यायवचन के अनुसार विगत सूत्र (१।५ ।९) से केवल ‘लोप्यः' पद की अनुवृत्ति नहीं की जा सकती, किन्तु 'लोप्यो यं वा' इतने अंश की अनुवृत्ति हो सकेगी । यदि इतने अंश की अनुवृत्ति होगी तो लोप के अतिरिक्त विसर्ग के स्थान में पाक्षिक यकारादेश भी होगा जो यहाँ अभीष्ट नहीं है । यहाँ तो लोमात्र ही अभीष्ट है । इसी के साधनार्थ लोप शब्द सूत्र में पढ़ा गया है। [रूपसिद्धि] १. देवा गताः। देवाः + गताः । आकार से परवर्ती तथा घोषसंज्ञक वर्ण ग के पर में रहने विसर्ग का लोप । २. भो यासि । भोः + यासि । 'भो' से परवर्ती तथा घोषसंज्ञक वर्ण य के पर में रहने पर विसर्ग का लोप ।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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