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________________ २६२ कातन्त्रव्याकरणम् स्यात् । तथाहि यदि समुच्चयार्थो भविष्यति तदा यलोप्याविति कृतं किं चरितार्थं वाशब्देन ? सत्यम् । यथाश्रुतभिन्नविभिक्तनिर्देशे समुच्चयं विना वाक्यार्थपोष एव न स्यात्, समुच्चयस्यैव विकल्पनानौचित्यादित्याशयः । तर्हि यलोप्याविति कथं न कृतम् इति चेत्, सूत्रस्य विचित्रा कृतिः ।।७०। [समीक्षा] (१) 'कः + इह, कः + उपरि' इस दशा में कातन्त्रकार एक ही सूत्र द्वारा विसर्गलोप तथा यकारादेश का विधान करते हैं। जिससे ‘क इह, कयिह' आदि प्रयोग निष्पन्न होते हैं । पाणिनि के अनुसार स् को रु, रु को य् तथा उसका वैकल्पिक लोप करके उक्त प्रयोग सिद्ध किए जाते हैं। जिससे अनेक सूत्र तथा अनेक कार्य करने पड़ते हैं। अतः पाणिनीय निर्देश में गौरव स्पष्ट है। (२) 'कः + इह' इस अवस्था में विसर्ग के स्थान में यकारादेश होने पर "अकारो दीर्घ घोषवति" (२। ११ १४) से ककारोत्तरवर्ती अकार को दीर्घ आदेश प्राप्त होता है । इसके समाधानार्थ “अकारो दीर्घ घोषवति" (२।१।१४) सूत्र का अर्थ किया जाता है - विभक्तिविषयक घोषवान् वर्ण के पर में रहने पर अकार को दीर्घ होता है । न कि विभक्तिरूप घोषवान् वर्ण के पर में रहने पर । अतः 'देवाय' इत्यादि में दीर्घ हो जाता है | कयिह में नहीं । उमापति ने कहा भी है। देवायेति कृते दीर्घे कयिहेति कथं नहि। सत्यमेकपदे दीर्घो न तु भिन्नपदाश्रितः ॥ इति। [रूपसिद्धि] १. क इह, कयिह । कः + इह । अकारोत्तरवर्ती विसर्ग का स्वर वर्ण इ के पर में रहने पर लोप तथा सन्धि का अभाव = क इह । विसर्ग को यकारादेश = कयिह । २. क उपरि, कयुपरि। कः + उपरि । स्वर वर्ण उ के परवर्ती होने पर अकारोत्तरवर्ती विसर्ग का लोप तथा सन्धि का अभाव = क उपरि । विसर्ग का विकल्प से यकारादेश = कयुपरि ।।७०।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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