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________________ २५२ कातन्त्रव्याकरणम् व्याख्याकारों ने उस अर्धविसर्गसदृश वर्ण को जिह्वामूलीय नाम दिया है । इससे स्पष्ट है कि पाणिनीय निर्देश विशेष व्याख्यागम्य है, जब कि कातन्त्रीय निर्देश अत्यन्त सरल। [विशेष] पाणिनीय व्याख्याकारों के अनुसार जिह्वामूलीय को अर्धविसर्ग के सदृश माना गया है,परन्तु कातन्त्रव्याख्याकारों ने इसे वज्रसदृश आकृतिवाला माना है । ये दोनों ही आकृतियाँ (x,x) पर्याप्त भिन्न हैं। इनकी भिन्नता में विशेषज्ञ विद्वान् ही प्रमाण हो सकते हैं। [रूपसिद्धि] १. कxकरोति । कः करोति । ककार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को जिह्वामूलीय आदेश। २. कxखनति । कः + खनति । खकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती विसर्ग को जिह्वामूलीय आदेश ।। ६५।। ६६. पफयोरुपध्मानीयं नवा (१।५।५) [सूत्रार्थ] 'प-फ' वर्गों के पर में रहने पर विसर्ग के स्थान में उपध्मानीय आदेश होता है ।।६६। [दु०वृ०] विसर्जनीयः पफयोः परयोरुपध्मानीयमापद्यते नवा | क " पचति, कः पचति, क फलति, कः फलति | व्यवस्थितविभाषयाऽघोषे शिट्परे न शादयः । पुरुषः सरुकः, वासः क्षौमम्, अद्भिः प्साताम् ।।६६। [दु०टी०] पफ०। नवाधिकार एव व्यवस्थितविभाषार्थं परिकल्पयिष्यति । भूयः किं नवाग्रहणेनेति चेद्, वक्ष्यमाणं हि विकल्पवचनं पूर्वस्मिन् विभाषानिवृत्त्यर्थमुत्तरत्रेति संदेह एव स्यात् । ननु पुरुषः त्सरुकः इति कथमत्र व्यवस्थितविभाषा ? "वर्गे तद्वर्गपञ्चमं वा" (१।४।१६) इत्यतो मण्डूकप्लुतिरिति ।।६६।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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