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________________ २१० कातन्त्रव्याकरणम् अर्थात् "चवर्गदृगादीनां च" (२/३/४८) सूत्र में 'दृग्' शब्द क्विबन्त है, उसके साहचर्य से ऐसे ही चवर्ग के स्थान में गकारादेश होगा जो क्विबन्त या तादृश अन्य शब्द हो । यहाँ 'अच्' शब्द क्विबन्त नहीं है । अतः गकारादेश भी नहीं होता है । फलतः ‘अज्झलौ' का साधुत्व निर्बाध बना रहता है। इस सूत्र में किए गए 'नवा' शब्दग्रहण के विषय में भी इस प्रकार विचार किया गया है कि पूर्व सूत्र से ही 'नवा' की अनुवृत्ति यहाँ सुलभ है, अतः इस सूत्र में 'नवा' शब्द नहीं पढ़ना चाहिए | यदि यह कहा जाए कि उत्तर सूत्र में 'नवा' की अनुवृत्ति के निषेधार्थ 'नवा' पद पढ़ा गया है तो फिर यह शङ्का होती है कि “पञ्चमे पञ्चमांस्तृतीयान् नवा" (१/४/२) इस सूत्र से 'नवा' पद की अनुवृत्ति निर्बाध होने पर भी पुनः अग्रिम सूत्र "वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न वा" (१/४/३) में 'नवा' पद पढ़ने की क्या आवश्यकता है। इस पर यह निर्णय किया जाता है कि यहाँ दो विभाषाओं के मध्य में पठित विधि को नित्य मानने के लिए ऐसा किया गया है - "उभयोर्विभाषयोर्मध्ये यो विधिः स नित्यः" (काला० परि० ७८)। फलतः "वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न वा" (१/४/३) यह विधि नित्य मानी जा सकती है ।।४९ । ५. पररूपं तकारो ल-च-टवर्गेषु (१।४५) [सूत्रार्थ] पदान्तवर्ती तकार को पररूप होता है यदि उस तकार के बाद ल्, चवर्गीय या टवर्गीय वर्ण विद्यमान हों ।। ५०। [दु० वृ०] तकारः पदान्तो ल-च-टवर्गेषु परतः पररूपम् आपद्यते । तल्लुनाति, तच्चरति, तच्छादयति, तज्जयति, तज्झासयति, तञकारेण, तट्टीकनम्, तट्ठकारेण, तड्डीनम्, तड्ढौकते, तण्णकारेण । पदान्ते धुटां प्रथमे सति तज्जयः, दृशल्लेखा, ज्ञानभुट्टीकनम् इति । ल-च-टवर्गेष्विति किम् ? तत्पचति ।।५०। [दु० टी०] पररूपम् । परस्य रूपम् आकृतिः । श्रुता एव ल-च-टवर्गाः परशब्दवाच्या न लुनात्यादयो रूपग्रहणमन्तरेण परमापद्यते इति प्रतिपद्यते । अथ तमिति कुर्यात् तदा
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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