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________________ ८४ कातन्त्रव्याकरणम् [क० च०] घोषः। अन्य इत्यस्य विवरणं वृत्ताववशिष्टा गादय इति । यदि कादय इति पाठस्तदा समुदायापेक्षया । तथाहि ते कादयो व्यञ्जनभूता घोषवन्त इत्यर्थः।।१२। [समीक्षा] 'वर्गीय तृतीय - चतुर्थ - पञ्चम, य र ल व ह' इन २० वर्णों की कलापकार ने घोष संज्ञा की है । जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की अधिकता से नाद - ईषन्नाद दोनों ही सुनाई पड़ते हैं, अर्थात् घोष = ध्वनि वाले वर्णों को घोषवान् कहते हैं । इस प्रकार यह संज्ञा अन्वर्थ है । इसी अर्थ में शिक्षा-ग्रन्थों में इसका प्रयोग हुआ है - "विंशतिर्घोषास्ते गजडदबाः, घझढधभाः, ङञणनमाः, यरलवाः, हकारश्चेति” । ( या० शि०, ५ / ९३ ) | ( येषां वर्णानामुच्चारणे वायोराधिक्याद् नादेषन्नादौ श्रूयेते ते गजडदबादयो विंशतिसंख्याका घोषा भवन्तीति शेष:- शिक्षावल्लीविवृतिः) । पाणिनि ने इन २० वर्णों के बोधार्थ 'हश्' प्रत्याहार का प्रयोग किया है, जो यादृच्छिक या कृत्रिम है || १२ | १३. अनुनासिका ङ- ञ-ण-न-माः (१1१1१३ ) [ सूत्रार्थ ] वर्गीय पञ्चम वर्ण, अर्थात् 'ङ- ञ-ण-न-म' इन ५ वर्णों की अनुनासिक संज्ञा होती है ||१३| [दु० वृ०] ‘ङ-ञ-ण-न-म' इत्येते वर्णा अनुनासिकसंज्ञा भवन्ति । अनुनासिकप्रदेशाः “घुड् व्यञ्जनमनन्तस्थानुनासिकम्” (२।१।१३ ) इत्येवमादयः ।। १३ । . [दु० टी०] अनुना० । अनु पश्चाद् नासिकास्थानमुच्चारणमेषामित्यनुनासिकाः, अनु पश्चाद् नासिकायोगाद् वा अनुनासिकाः । अनुग्रहणमुभयवचनप्रतिपत्त्यर्थं मुखवचना
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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