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________________ सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ञापादः ३. दूसरों की अपेक्षा न रखने वाले सामर्थ्यसम्पन्न पुरुष भी स्वर कहे जाते हैं, परन्तु जो सामर्थ्यहीन होने के कारण दूसरों के साहाय्य की अपेक्षा रखते हैं, वे व्यञ्जनवत् आचरण करने के कारण व्यञ्जन कहे जाते हैं एकाकिनोऽपि राजन्ते सत्त्वसाराः स्वरा इव । व्यञ्जनानीव निःसत्त्वाः परेषामनुयायिनः॥ (द्र० - टे० ट० टे०, पृ० १८६) ४. इस संज्ञा के प्रदेश (प्रयोगसूत्र) हैं - "स्वरोऽवर्णव| नामी” (१।१।७) आदि । प्रदेश = जिसमें प्रयोजन कहे जाते हैं - "प्रदिश्यन्ते कथ्यन्ते प्रयोजनानि यत्र स प्रदेशः”। ५. स्वर के ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत-उदात्त-अनुदात्त-स्वरित-अनुनासिक-निरनुनासिक भेद से १८ भेद माने जाते हैं । सन्ध्यक्षर वर्णों (ए, ऐ, ओ, औ) का ह्रस्व भेद नहीं होता, अतः उनमें से प्रत्येक के १२ भेद होते हैं - अ = १८; इ = १८; ऋ = १८; ल = १८; ए = १२; ऐ = १२; ओ = १२; औ = १२। ६. स्वरों का दीर्घ, गुण, वृद्धि, अयादि सन्धियों में विशेष उपयोग होता है । पाँच सन्धियों में स्वरसन्धि का विशेष महत्त्व है स्वरसन्धिळजनसन्धिः प्रकृतिसन्धिस्तथैव च। अनुस्वारो विसर्गश्च सन्धिः स्यात् पञ्चलक्षणः॥ ७. कातन्त्रव्याकरण में स्वरसंज्ञक १४ वर्गों में से ‘ए, ऐ, ओ, औ' इन चार वर्णों को छोड़कर शेष १० वर्णों की समानसंज्ञा, समानसंज्ञक १० वर्गों में से २-२ वर्गों की सवर्णसंज्ञा, सवर्णसंज्ञक वर्गों में से पूर्ववर्ती वर्गों की ह्रस्व, उत्तरवर्ती वर्णों की दीर्घ, स्वरसंज्ञक १४ वर्गों में से अ-आ को छोड़कर शेष १२ वर्गों की नामी तथा ‘ए-ऐ-ओ-औ' इन ४ वर्णों की सन्ध्यक्षरसंज्ञा की गई है । पाणिनि ने सवर्ण को छोड़कर अचों की अन्य कोई संज्ञा नहीं की है। ८. वैदिक शब्दों में जो उदात्त, अनुदात्त, स्वरित की योजना की गई है, उन्हें स्वर इसीलिए कहते हैं कि उनकी प्रवृत्ति स्वरसंज्ञक वर्गों में ही होती है, क्ख् आदि व्यञ्जनों में नहीं ।।२।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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