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________________ कातन्त्रव्याकरणम् ४. श्रीपति, उमापति, भट्टमल्ल, कुलचन्द्र, जयादित्य तथा शङ्कराचार्य आदि के भी मतों का स्मरण किया गया है । ५. महान्, मूर्ख, आलङ्कारिक, केचित्, अन्ये, अपरे तथा साङ्ख्यमत आदि प्रतीकों द्वारा कुछ मतों की चर्चा की गई है। ६. 'अस्यायमर्थः, अयं भावः, वस्तुतस्तु, परमार्थतस्तु' आदि वचनों द्वारा कुछ विषयों का स्पष्टीकरण किया गया है | ७. 'वाक्, देव, ताच्छील्य, सर्वज्ञ, तन्त्र, कातन्त्र' प्रभृति कुछ शब्दों की व्युत्पत्तियाँ दिखाई गई हैं। ८. कलापचन्द्रकार ने प्रसङ्गतः शब्द के अनित्यत्व की चर्चा की है तथा दुर्गसिंह से पूर्ववर्ती कातन्त्रवृत्तियों को केवल सूत्रव्याख्यानपरक माना है। ९. कलापचन्द्रकार सुषेण विद्याभूषण के अनुसार वृत्तिकार दुर्गसिंह को शैवमतानुयायी मानना होगा, जबकि वृत्तिकार-टीकाकार के अभेद से उन्हें बौद्धमतानुयायी तथा कुछ अन्य प्रमाणों के आधार पर वैदिकमतानुयायी भी माना जाता है (द्र०, संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण, पृ० १५९-६६)। किंवदन्ती के अनुसार यदि दुर्गसिंह की ही उपाधि अमरसिंह मान ली जाए तो दुर्गसिंह तथा अमरसिंह को अभिन्न व्यक्ति स्वीकार किया जा सकेगा और उस स्थिति में इन्हें तिब्बती-वाङ्मय के अनुसार 'बौद्ध' तथा जैन-मान्यता के अनुसार 'जैन' भी कहना उचित होगा (द्र०, संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण, पृ० १३७-५४)। १०. कातन्त्रलिङ्गानुशासन के अन्तिम वचन के आधार पर दुर्गसिंह के अन्य भी तीन नाम हैं- दुर्गात्मा, दुर्ग, दुर्गप । 'दुर्गसिंहोऽथ दुर्गात्मा दुर्गो दुर्गप इत्यपि' । ११. कलापचन्द्रकार ने दुर्गसिंह के मङ्गलवचन “देवदेवं प्रणम्यादौ” को वररुचिकृत माना है। १. सिद्धो वर्णसमाम्नायः (१।१।१) [सूत्रार्थ] कलापव्याकरण (शास्त्र) में अकारादि वर्गों का पाठक्रम लोकव्यवहार के ही अनुसार समझना चाहिए, स्वकल्पित नहीं ।।१।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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