SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारक तथा विभक्ति ওও चतुर्थी तथा सप्तमी -- ये विभक्तियाँ होती हैं, किन्तु अर्थ में सूक्ष्म अन्तर रहता है । 'ग्रामं गच्छति' में मुख्यतः गति की दिशा का निर्देश है कि गाँव की ओर उसकी गति है तथा वहाँ तक उसे पहँचना है। 'ग्रामाय गच्छति' में गति के लिए दिशा का निर्देश है कि कर्ता उस स्थान तक पहुँचने के उद्देश्य से चलता है । 'ग्रामे गच्छति' में स्थान तक पहुँचने तथा वहाँ पर ठहरने का भी अर्थ है। (ग ) अप्रयुक्त तुमुन्नन्त क्रिया के कर्म-कारक में चतुर्थी होती है। यदि उसका प्रयोग हो जाय तो उसमें द्वितीया ही होगी। यथा----पुष्पेभ्यो याति ( पुष्पाणि हत्त याति ) । 'हर्तुम्' क्रिया अप्रयुज्यमान है, जिसका कर्म पुष्प है, अतः उसमें चतुर्थी हुई है। ( क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः २।३।१४ )। (घ ) दिवादि-गणवाले मन्-धातु के अप्राणिवाचक कर्म-कारक में अनादर ( तिरस्कार ) का अर्थ होने पर चतुर्थी तथा द्वितीया-ये दोनों विभक्तियाँ होती हैं । यथा-न त्वां तृणं ( तृणाय वा ) मन्ये ( पा० सू० २।३।१७ ) । कात्यायन के अनुसार अप्राणिवाचक शब्द से यहाँ नौ, काक, अन्न, शुक, शृगाल---- इन शब्दों से भिन्न शब्द का बोध करना चाहिए, वह प्राणिवाचक हो या अप्राणिवाचक । तदनुसार 'न त्वा शुने ( श्वानं वा ) मन्ये' होता है। किन्तु उक्त परिगणित शब्दों के साथ केवल द्वितीया ही होती है---न त्वा शुकं मन्ये । ये संमृष्ट प्रयोग संस्कृत के जीवित भाषा होने के पर्याप्त प्रमाण हैं। उपपदविभक्ति-( क ) तादर्थ्य ( एक वस्तु का दूसरी वस्तु के लिए होना ) ज्ञात होने पर चतुर्थी होती है-यूपाय दारु ( खूटे के लिए लकड़ी )। कुण्डलाय हिरण्यम् । रन्धनाय स्थाली । ब्राह्मणाय दधि । काव्यं यशसे । ( ख ) क्लप के अर्थ वाले धातुओं का प्रयोग होने पर उत्पन्न किये जाने वाले पदार्थ के वाचक शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है-भक्तिः ज्ञानाय कल्पते, सम्पद्यते, जायते, भवति । यहाँ उत्पाद्य पदार्थ ज्ञान है। (ग ) प्राणियों के शुभ या अशुभ के सूचक भौतिक विकार ( उत्पात ) के द्वारा जिसका बोध कराया जाय उसके वाचक शब्द में चतुर्थी होती है-वाताय कपिला विद्यत । कपिल वर्ण की बिजली प्राकृतिक विकार है जो भविष्यत्काल में आनेवाली आँधी का ज्ञापन करती है । यहाँ ‘क्रियार्थोषपद०' के अनुसार 'वातं ज्ञापयितुं कपिला विद्युत् भवति' के रूप में विश्लेषण करके चतुर्थी कारक-विभक्ति की भी उपपत्ति की जा सकती है। (घ ) तुमुन् प्रत्यय के समानार्थक जो कृत्प्रत्यय ( घञ्, ल्युट आदि ) भाव अर्थ में विहित हो तो उससे बने हुए कृदन्त शब्द में चतुर्थी होती है-पाकाय ( -पक्तम् ) अग्निमाहरति । श्रवणाय ( श्रोतुं ) समागतः । तुमुन्नन्त को क्रियार्था क्रिया कहते हैं, क्योंकि एक दूसरी क्रिया के सम्पादन के लिए यह होती है। 1. Cf. I. J. S. Tarapɔrewala, Sanskrit Syntax, p. 40.
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy