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________________ अध्याय:३ कारक तथा विभक्ति कारक-सम्बन्ध तथा उपपद-सम्बन्ध पिछले अध्याय में हम यह देख चुके हैं कि किसी वाक्य में पदों के बीच दो प्रकार के सम्बन्ध होते हैं । पहला सम्बन्ध नाम तथा क्रिया के बीच में है जिसे कारक-सम्बन्ध कहते हैं । दूसरा सम्बन्ध दो नाम-पदों के बीच अथवा नाम ( सुबन्त ) का अव्यापक अर्थ लेने पर नाम एवं क्रियेतर तत्त्वों ( निपात, कर्मप्रवचनीय तथा नाम ) के बीच होता है जिसे उपपद-सम्बन्ध कहते हैं । यथा-गुरवे नमः । यहाँ 'नमः' निपात है, जिसका सम्बन्ध गुरु के साथ प्रदर्शित किया गया है। इसी प्रकार 'आ कैलासात्', 'अधि रामे भूः', 'वृक्षं प्रति' इत्यादि उदाहरणों में आ, अधि, प्रति—ये कर्मप्रवचनीय हैं, जो तत्तत् सुबन्तों से सम्बद्ध हैं । यहाँ परम्परया किसी क्रिया का सम्बन्ध भले ही हो किन्तु सुबन्तों का साक्षात् सम्बन्ध उन क्रियेतर तत्त्वों से ही है, क्योंकि ये तत्त्व ही उन सुबन्तों का नियमन करते हैं कि किसी के साथ द्वितीयादि विभक्तियाँ होंगी। दोनों प्रकार के सम्बन्ध विभक्तियों के द्वारा व्यक्त होते हैं। 'वृक्षं पश्यति' में वृक्ष-शब्द में लगी हुई द्वितीया एकवचन की विभक्ति ( अम् ) दर्शन-क्रिया तथा वृक्ष के बीच प्रवृत्त होने वाले सम्बन्ध को व्यक्त करती है। यहां दोनों का सम्बन्ध कारकात्मक है, क्योंकि इसका क्रिया से साक्षात् संसर्ग है। दूसरी ओर 'वृक्षं प्रति' में ठीक वही विभक्ति 'प्रति' ( कर्मप्रवचनीय ) तथा वृक्ष के बीच के सम्बन्ध को प्रकट करती है । यहाँ विभक्ति के द्वारा उपपद-सम्बन्ध की अभिव्यक्ति हो रही है । सम्बन्धों के इस वैषम्य के कारण विभक्ति-सादृश्य होने पर भी दोनों विभक्तियों में भेद हैउपपद-सम्बन्ध प्रकट करनेवाली विभक्ति कारक-सम्बन्ध प्रकट करनेवाली विभक्ति से पृथक् है । न्यायशास्त्र में विभक्ति-शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग होता है। वहाँ पद की वृत्ति ( व्यवहार-हेतु ) को विभक्ति कहते हैं । इसी अर्थ में गौतम ने 'ते विभक्त्यन्ताः पदम्' ( न्या० सू० २।२।५७ ) सूत्र में विभक्ति-शब्द का प्रयोग किया है । तदनुसार पद बनानेवाले प्रत्यय को विभक्ति कहते हैं। हम जानते हैं कि सुप तथा तिङ ये दो ही प्रत्यय पद बनाने की क्षमता रखते हैं, अतएव विभक्ति के अन्तर्गत सुप् तथा तिङ् दोनों प्रत्यय आते हैं। जगदीश ने२ प्रत्ययों के ४ भाग करते हुए विभक्ति को १. "द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पञ्चधापि वा। -वा०प० ३।१।१ २. श० श० प्र०, का० ६० ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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