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________________ ६८ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन देहि । इस वाक्य में दान-क्रिया का फल घटरूप कर्म में निहित है, घट फलाश्रय है। किन्तु यह फल ब्राह्मण को प्राप्त होनेवाले फल का साधन है। दान का कर्म घट है और घट का दान ब्राह्मण को फल मिलने के लिए हो रहा है। इस प्रकार फलाश्रयभूत कर्म एक दूसरे आश्रय ब्राह्मण का निर्देश करता है । तदनुसार ब्राह्मण घट-कर्म के द्वारा दान-क्रिया के फल के सम्पादन में उपकारक है, अतः इसे पृथक्-कारक-सम्प्रदान कहा जाता है। सम्प्रदान में भी अपादान के ही समान सभी क्रियाओं का उपयोग नहीं होता। कुछ वैयाकरण तो केवल दानार्थक धातुओं तक ही सम्प्रदान को सीमित करते हैं, किन्तु दूसरे कतिपय अन्य धातुओं के साथ भी इसकी स्थिति की कल्पना करते हैं । फिर भी इनकी संख्या सीमित है। यद्यपि अन्तिम चरण में जाकर इन दोनों को भी कारकों के बीच स्थान मिल जाता है, क्योंकि कर्ता ( अपादान की स्थिति में ) या कर्म ( सम्प्रदान की स्थिति में ) के माध्यम से ये कुछ सीमित-संख्यक क्रियाओं का उपकार करते हैं, तथापि कुछ स्थानों में इनका कारकत्व संशय के साथ देखा गया है । संशय के मुख्य कारण इस प्रकार है (१) जो भी कारक होता है वह अवश्य ही कर्ता भी हो सकता है, क्योंकि तत्तत् कारकों की अविवक्षा होने पर द्रव्य की अन्तनिहित कर्तृत्वशक्ति अभिव्यक्त हो जाती है । सम्प्रदान तथा अपादान के साथ ऐसी बात नहीं होती। 'शृङ्गात् शरो जायते', 'अजाविलोमभ्यो दूर्वा जायते' इत्यादि उदाहरणों में जो अपादान की अविवक्षा में 'शृङ्गं शरो जायते' इत्यादि दिखलाये जाते हैं वहाँ वास्तव में मूलतः अधिकरणकारक ही युक्तियुक्त है-'शृङ्गे शरो जायते' । केवल पञ्चमी विभक्ति के विधान के लिए ही जन् धातु के प्रयोग में अपादान का विधान पाणिनि ने किया है । किन्तु यह कहना युक्तिसंगत नहीं लगता कि पञ्चमी के विधान मात्र के लिए इसमें कारक की कल्पना हुई है। यदि वही करना पाणिनि को अभीष्टं होता तो वे 'क्रियाजन्यापायावधौ पञ्चमी' कह देते। इसीलिए वैयाकरणों ने अवधि के रूप में स्थित रहना ही अपादान का व्यापार माना है । अतः यह कारक है। (२) कर्ता, कर्मादि चार कारकों में जिस प्रकार क्रिया-सामान्य का बोधक कृधातु अनुस्यूत है उस प्रकार सम्प्रदान-अपादान में नहीं। यहाँ वास्तविक बात यह है कि सम्प्रदान तथा अपादान सभी धातुओं की स्थिति में नहीं होते, कुछ निश्चित धातुओं के प्रयोग में ही ये कारक होते हैं। किन्तु यह सबल युक्ति नहीं है जो इनकी कारकता पर आक्षेप करे, क्योंकि कर्म-कारक भी तो केवल सकर्मक धातुओं तक ही सीमित है । यह सत्य है कि भाषा-विकास की आरम्भिक स्थिति में क्रिया-सामान्य के सम्बन्ध के 1. R. C. Pandey, Problem of Meaning in Indian Phil., 145. २. रामाज्ञा पाण्डेय, व्याकरणदर्शनभूमिका, पृ० २०८-१४ । ३. वही, पृ० २०९।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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