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________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन वाक्य-प्रयोग में शक्ति को द्रव्यवत् व्यवहृत किया गया है, अतः इसमें दूसरी करणत्वशक्ति का योग है। कारक के इस शक्ति-सिद्धान्त का निर्वाह नागेश ने लघमञ्जूपा के सुबर्थ-विचार मेंसभी कारकविशेषों के निम्पण में किया है । कारक-भेद तथा उनका युक्तिमूलक विकास द्रव्यों की उपर्युक्त प्रकार से क्रियाजनक शक्तियाँ छह प्रकार की होती है.---यह अन्तिमरूप से संस्कृत व्याकरणशास्त्र में सर्वमान्य सिद्धान्त है। तदनुसार छह कारकभेद होते हैं । यद्यपि कारक-शब्द का व्युत्पत्ति-निमित्त ( अवयवों की अर्थबोधकताशक्ति ) केवल कर्ता की ही शक्ति का सन्धान करता है, तथापि शास्त्रतः जब इसे व्यापक अर्थ में लेते हैं तब यह छहों स्वीकृत कारकों का बोधक होता है। वे हैं--- कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण । इस वैविध्य का जन्म वास्तव में एक ही द्रव्यशक्ति से होता है। यदि द्रव्य से केवल क्रिया-निष्पत्ति का बोध हो तो ये सभी कारक अपने में निहित कर्तत्वशक्ति का प्रदर्शन करेंगे, क्योंकि प्रत्येक कारकविशेष में दो प्रकार की क्रियोत्पादिका शक्ति रहती है—सामान्य तथा विशेष । सामान्य शक्ति तो सभी में एक-सी ही रहती है, इसलिए उसका प्रदर्शन विवक्षित होने पर उनकी अव्यक्त कर्तृशक्ति व्यक्त हो जाती है। जैसे--‘स्थाली पचति, एधाः पचन्ति, असिश्छिनत्ति' । द्रव्यों में एक दूसरी विशेष शक्ति है, जिससे उनमें परस्पर व्यावृत्ति का बोध होता है। एक ही पाकक्रिया में काष्ठ, स्थाली, ओदन, अग्नि तथा सूपकार का सामान्य व्यापार ( पाकक्रियासिद्धि ) एक रहने पर भी विशेष व्यापार एक ही नहीं है । काष्ठ जिस प्रकार से उपकार करता है उसी प्रकार से स्थाली का व्यापार नहीं होता। व्यापार-विशेष की यह अभिव्यक्ति ही कारकों को वैयक्तिक स्वरूप प्रदान करती है, जिससे वे कर्ता, कर्म, करणादि कहलाते हैं । हम इसी अध्याय में देख चुके हैं कि क्रिया के व्यापार तथा फल से साक्षात् सम्बन्ध क्रमशः कर्ता तथा कर्म का होता है, क्योंकि आश्रयी के रूप में व्यापार कर्ता में तथा फल कर्म में समवेत होता है । यही कारण है कि ये दो कारक क्रिया के व्यापारसम्पादन में तथा फल की प्राप्ति में सर्वाधिक सहायक हैं, प्रत्युत सद्यः उपकारक हैं । इस प्रकार प्रथम चरण में सभी कारकों में कर्तत्वशक्ति निहित होने के कारण कर्ता को मुख्य स्थान दिया गया है। द्वितीय चरण में साक्षात् क्रियोपकारक होने से कर्ता तथा कर्म को वह स्थान प्राप्त होता है । अन्य कारक इन्हीं दोनों में से किसी एक के १. द्रष्टव्य-ल० म०, पृ० ११९४ । २. (क) 'निष्पत्तिमात्रे कर्तृत्वं सर्वत्रवास्ति कारके । व्यापारभेदापेक्षायां करणत्वादिसम्भवः' । -वा० प० ३।७।१८ (ख) 'निमित्तभेदादेव भिन्ना शक्तिः प्रतीयते । षोढा कर्तृत्वमेवाहुस्तत्प्रवृत्तेनिबन्धनम् ॥ -वही, ३७।३७
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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