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________________ संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन की पञ्चमी को कारकविभक्ति कहेंगे'। सारांश यह है कि जगदीश भी क्रिया से सम्बन्ध का ग्रहण करके सुप्-प्रत्यय के कर्मत्वादि अर्थ को कारक कहते हैं। भवानन्द जहाँ कारक में विभक्त्यर्थ को साधक मानते हैं, वहीं जगदीश विशिष्ट विभक्त्यर्थ को ही कारक कहते हैं। सुपविभक्ति का कर्मादि वाच्य होता है-यह सिद्धान्त वैयाकरणों में भी मान्य है । वार्तिककार कात्यायन स्वयं 'सुपा कर्मादयोऽप्यर्थाः सङ्ख्या चैव तथा तिङाम्' इस प्रकार 'बहुषु बहुवचनम्' ( पा० सू० १।४।२१) के वार्तिक में स्वीकार करते हैं, किन्तु वे संख्या को भी विभक्त्यर्थ मानते हैं। वैसे व्याकरण के सभी सम्प्रदाय ( कातन्त्र के अध्येता जगदीश भी ) संख्या तथा कारक दोनों अर्थों को विभक्त्यर्थ मानते हैं-वे कण्ठतः कहें या नहीं। यह स्पष्ट है कि विभक्ति ही कारक नहीं है, वह कारक की अभिव्यक्ति का साधनमात्र है । वह ( विभक्ति ) अपने अर्थ के प्रति साधन मानी जाती है, वह अर्थ कारक है। तदनुसार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सुप्-विभक्ति कारक का बोध कराती है और कारक क्रिया की सिद्धि करता है। जगदीश के इस लक्षण की आलोचना गिरिधर भट्टाचार्य ने अपने ग्रन्थ विभक्त्यर्थनिर्णय में की है । जगदीश स्वयं भी इस लक्षण के द्वारा 'मम प्रतिभाति' इत्यादि कुछ स्थलों में कारकत्व की अतिव्याप्ति का उल्लेख करते हैं, किन्तु वे अपने लक्षण में दोष न दिखलाकर षष्ठी-विभक्ति के तादृश प्रयोग को ही विभावनीय (चिन्त्य ) बतलाते हैं। वास्तव में 'मम प्रतिभाति, कान्तस्य त्रस्यति' इत्यादि उदाहरणों में शेष-षष्ठी का धात्वर्थ से अन्वय हो जाने के कारण लक्षण की अतिव्याप्ति स्पष्ट है। ( ४ ) अपादानाद्यन्यतमत्वं कारकत्वम-अपादानादि विशेषों में से कोई एक रूप ारण करना कारक का लक्षण है। इस लक्षण का भी अनुवाद करके गिरिधर ने खण्डन कया है। पहली बात तो यह है कि अपादानादि भी कभी-कभी षष्ठी के अर्थ में होते हैं । उस स्थान पर इनकी कारकता समाप्त हो जायेगी। दूसरे, अपादानत्वादि कई प्रकार के हैं; जैसे-ध्रुवत्व, असोढत्व, ईप्सितत्व इत्यादि । इनमें किसी एक ही को ( साकल्येन नहीं ) कारक कैसे कहा जा सकता है ? कतिपय अपादानों को जानने वाला, जो सभी को नहीं जानता होगा, केवल ध्रुवादि में कारकत्व का ग्रहण नहीं कर सकेगा । कारक के ज्ञान के अभाव में अपादानादि भेदों का ही ज्ञान प्राप्त करना कठिन है और उस अपादान के भी भेदों को जानना तो सुतरां कठिन है। . वास्तव में कारक के लक्षणों की कठिनाई बढ़ती ही जाती है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो कोई भी लक्षण निर्दोष नहीं मालूम पड़ता । तथापि क्रिया के जनक, निर्वर्तक, निष्पादक, सम्पादक, उत्पादक इत्यादि के रूप में इसके लक्षण किये गये हैं १. 'यद्धातूपस्थाप्ययादृशार्थेऽन्वयप्रकारीभूय भासते यः सुबर्थः स तद्धातूपस्थाप्यतादृशक्रियायां कारकम् । --श० श० प्र०, पृ० २९४ २. द्रष्टव्य-विभक्त्यर्थनिर्णय, पृ० २-३ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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