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________________ ( ४ ) योगदान रहा है । विदेशी विद्वानों के कार्य मुख्यतः वैदिक साहित्य तथा प्राचीन दर्शन तक ही सीमित हैं । इसका कारण यह है कि संस्कृत भाषा से परिचय होने के बाद पाश्चात्य जगत् में जो तुलनात्मक भाषाविज्ञान तथा तुलनात्मक धर्म के अध्ययन का क्रम चला, उसमें इन्हीं दोनों का अधिक उपयोग माना गया । साहित्य से सामान्य परिचय होने पर भी व्याकरण तथा नव्य-न्याय से प्रभावित शास्त्रों की प्रतिपादन प्रणाली से पाश्चात्य जगत् इस शताब्दी के पूर्व तक प्रायः अस्पृष्ट ही था । इधर पाश्चात्य दर्शन में भाषा-विश्लेषण का प्रवेश होने के बाद से इन उपेक्षित भारतीय शास्त्रों की ओर विदेशियों का भी ध्यान आकृष्ट हुआ है तथा वे पाणिनितन्त्र एवं नव्य-न्याय के अध्ययन में भी लगे हैं । अमेरिका के भाषाशास्त्रियों तथा प्राच्य विद्याविशारदों की इस विषय में श्लाघ्य रुचि देखी जाती है । व्याकरण-दर्शन की विषय-वस्तु का व्यापक रेखाचित्र ( Outline ) खींचनेवाले डॉ० प्रभातचन्द्र चक्रवर्ती ने अपने शोध से सम्बद्ध ग्रन्थों में ऊपर प्रदर्शित सभी विषयों का सामान्य रूप से विवेचन करके इस क्षेत्र के अध्येताओं के लिए मानो मार्ग प्रदर्शन किया। देश-विदेश में इन ग्रन्थों की पर्याप्त चर्चा हुई तथा विदेशियों को भारतीय भाषावैज्ञानिक सूक्ष्मेक्षिका स्वीकार करनी पड़ी । इनके बाद बंगाल के ही कुछ दूसरे विद्वानों ने अपनी मातृ भाषा के माध्यम से भी उन विषयों का विवेचन किया । इनमें श्रीगुरुपद हाल्दार 'व्याकरणदर्शनेर इतिहास' का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है । इसमें दार्शनिक विवेचन के अतिरिक्त इतिहास का पक्ष भी न्यूनाधिक प्रकट हुआ है । इस विपुलकाय ग्रन्थ में अनेक वैयाकरणों के मतों का उदाहरणपूर्वक संकलन हुआ है जो कहीं-कहीं अवश्य ही, विषय-विवेचन को आगे न बढ़ा पाने के कारण, अनपेक्षित तथा भारवत् प्रतीत होता है । कुल मिलाकर डॉ० चक्रवर्ती महाशय की वैज्ञानिक दृष्टि इस ग्रन्थ के लेखक में नहीं मिलती । व्याकरण-दर्शन के इस सामान्य - विवेचन से पृथक् होकर अब इसकी एकएक समस्या के गम्भीर अध्ययन की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ । इस दिशा में भी भारतीय विद्वानों ने ही उपक्रम किया । इन विषयों में सर्वप्रथम शब्दार्थविज्ञान को आधार मानकर कई शोध-प्रबन्ध लिखे गये । इनमें निम्नलिखित ग्रन्थरूप में प्रकाशित होकर पर्याप्त प्रसिद्ध हुए हैं १. डॉ० गौरीनाथ शास्त्री : The Philosophy of Word and Meaning. 1. ( i ) Philosophy of Sanskrit Grammar. (ii ) Linguistic speculations of the Ancient Hindus. ( कल० विश्व० से प्रकाशित )
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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