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________________ क्रिया तथा कारक शक्ति तथा शक्तिमान् दोनों मूलतः एक ही हैं । अद्वैत वेदान्त में भी इसी सिद्धान्त पर ब्रह्म तथा उसकी शक्ति माया का एकत्व सिद्ध किया जाता है। शक्ति का अर्थ है-कारण में रहने वाला कार्योत्पत्ति के अनुकूल धर्मविशेष । यह धर्म प्रतिबन्धक ( शक्ति को रोकने वाले कारण ) के अभावरूप कारण के रूप में हैं । प्रतिबन्धक वस्तु का अभाव कार्यमात्र के प्रति कारण होता है। इसीलिए दाहात्मक कार्य का प्रतिबन्धक चन्द्रकान्तमणि है, क्योंकि इसके अभाव में अग्नि की दाहात्मिका शक्ति प्रकट होती है । इस प्रकार व्यतिरेक मुख से शक्ति की सिद्धि होती है । यह शक्ति द्रव्य इसलिए नहीं है क्योंकि गुणों में भी रहती है ( जबकि द्रव्य गुण में नहीं रह सकता ) । इसीलिए यह न गुण है, न कर्म । उत्पत्ति-विनाश से युक्त होने के कारण यह सामान्य, विशेष या समवाय के रूप में भी नहीं है, क्योंकि वे नित्य होते हैं। इस प्रकार पदार्थान्तर के रूप में शक्ति प्राभाकर-मत के मीमांसकों तथा वैयाकरणों को स्वीकार्य है । नैयायिक कहते हैं कि शक्ति को पृथक् पदार्थ मानने पर किसी वस्तु के समीप होने और न होने से शक्ति का पुनः पुनः उत्पादन तथा विनाश मानना पड़ेगा। फलस्वरूप अनन्त शक्तियाँ माननी होंगी, साथ ही उनके प्रागभावों तथा ध्वंसाभावों को स्वीकार करना पड़ेगा । यह गौरव-दोष है। इससे तो कहीं अच्छा है कि अग्निमात्र को दाह का कारण नहीं मानकर 'चन्द्रकान्तमणि के अभाव से विशिष्ट अग्नि' को दाह का कारण मानें । कभी-कभी किसी उत्तेजक मणि के होने पर चन्द्रकान्तमणि कुछ नहीं कर पाती, अग्नि को जलने से रोक नहीं सकती । अतः 'उत्तेजकाभाव से विशिष्ट चन्द्रकान्त के अभाव' को दाह का कारण मानते हैं । अतः शक्ति को अतिरिक्त पदार्थ मानने की युक्ति संगत नहीं है। किन्त शब्दाद्वैत के प्रवर्तक भर्तहरि समस्त जगत् रूप कार्य के पीछे उसी शक्ति की भूमिका मानते हैं । यह सम्पूर्ण विश्व शक्तियों का समूह है। यद्यपि परमार्थतः शक्ति एक ही है, तथापि अविद्याकृत उपाधियों के कारण विभिन्न रूपों में दिखलायी पड़ती है। तदनुसार घटादि भाव पदार्थों में जो शक्तियाँ हैं, उनके प्रकारों का विश्लेषण सम्भव है-(१) कुछ शक्तियां अपने कारणों से उत्पन्न होकर आश्रयनाश के साथ ही स्वयं नष्ट हो जाती हैं; जैसे-प्रदीप की प्रकाश-शक्ति । (२) कुछ शक्तियाँ पुरुषस्थ हैं तथा अपने वर्तमान आश्रय में ही सीमित रहती हैं; जैसे-बलादि शक्ति । ऐसी शक्तियाँ व्यायाम, श्रमाभ्यास या पुष्टिकारक पदार्थों के सेवन से उत्पन्न होती हैं । ( ३ ) कुछ शक्तियाँ आश्रय में पूर्व से ही विद्यमान रहने पर पुरुष के प्रयास १. द्रष्टव्य-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, का० २ । २. न्या० को०, पृ० ८५१ । ३. न्या० को०, पृ० ८५२ पर उद्धृत श्लोक 'न द्रव्यं गुणवृत्तित्वाद् गुणकर्मबहिष्कृता। सामान्यादिषु सत्त्वेन सिद्धा भावान्तरं हि सा' ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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