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________________ क्रिया तथा कारक तत्त्वों को पद-संज्ञा दी है कि ये वाक्य में प्रयुक्त होने की क्षमता रखते हैं ( सुप्तिङन्तं पदम् १।४।१४)। वाक्यों के संघटन में सुबन्त तथा तिङन्त के परस्पर सम्बन्धपूर्वक समुदाय की आवश्यकता होती है, जैसे-रामो गच्छति । इसमें प्रथम पद सुबन्त है, दूसरा तिङन्त । इन्हें नाम-पद तथा क्रिया-पद भी कहते हैं। यद्यपि सामान्यतया वाक्यों से दोनों पदों की संघटना होती है, तथापि इनमें भी क्रिया की ही प्रधानता मानी जाती है' । निरुक्तकार यास्क तथा वैयाकरणों का पूरा सम्प्रदाय इसी मत का अनुमोदन करता है, जिससे क्रियामुख्यविशेष्यक शाब्दबोध होता है। क्रिया की प्रधानता किसी भी वाक्य में इसी से समझी जा सकती है कि उसके अभाव में सभी नाम-पद विशृंखल होकर कुछ भी अर्थ नहीं दे सकेंगे । दूसरी ओर यदि किसी वाक्य में क्रिया रहे, अन्य पद नहीं भी हों तो भी वाक्य का निर्माण हो जाता है, क्योंकि क्रिया आवश्यक नामार्थ का आक्षेप कर लेती है । 'गच्छ' कहने से बोध होता है—(त्वं) गच्छ । यह पूरा वाक्य है। किन्तु 'रामः स्थाली गजः' इत्यादि अनेक नाम-पदों का उच्चारण करने पर भी वाक्य नहीं बनता। इस प्रकार यह क्रियातत्त्व है जो विभिन्न नामों को संयुक्त करता है । ये नामपद क्रिया के चारों ओर घूमते तथा उससे सम्बन्ध स्थापित करने पर वाक्य का संघटन करते हैं । 'रामः काष्ठः स्थाल्यामोदनं पचति' इस वाक्य में क्रिया एक ही है-'पचति'; किन्तु यह चार-चार नामपदों को अपने में संयुक्त किये हुए है । क्रिया में चारों पदों का संयोजन इसलिए सम्भव है कि व्यावहारिक जगत में भी इनके अर्थों का पाकक्रिया से संयोजन होता है । वस्तुतः ये चारों अर्थ क्रिया-सिद्धि में सहायता पहुँचा रहे हैं कि पाक हो जाय । पकाने की क्रिया में राम सभी व्यापारों का संचालक होने के कारण उपकार करता है, लकड़ियाँ पकाने का साधन हैं, स्थाली उसका आधार है और ओदन पाक का विषय होने के कारण उसके फल का भागी है । यदि क्रिया नहीं होती तो ये चारों पदार्थ बिखर जाते । नामार्थ का क्रिया से सम्बन्ध-कारक का बीज क्रिया का इसीलिए नामार्थ के साथ सम्बन्ध करना वाक्य का मुख्य उद्देश्य है, जिससे वक्ता का अभिप्रेत अर्थ श्रोता तक पहुँच जाय । वाक्य में क्रिया के साथ नामार्थ के सम्बन्ध को व्याकरणशास्त्र में कारक कहते हैं। नामार्थ का क्रिया के साथ यह सम्बन्ध प्रधानतया साक्षात् होता है, किन्तु कभी-कभी उपकार-सामर्थ्य के आधार पर परम्परया सम्बन्ध भी होता है। दोनों प्रकार के सम्बन्ध द्वारा नामार्थ क्रिया की सिद्धि में सहायता करता है। इस प्रकार क्रिया से सम्बन्ध रखने वाले प्रत्येक नामार्थ को अपना आश्रय बनाकर कारकतत्त्व वर्तमान रहता है। क्रिया साध्य है तथा कारक साधन । भर्तृहरि इसीलिए कारकों का सामान्य अभिधान 'साधन' रखकर उनका विवेचन साधनसमुदेश में करते हैं। क्रिया की सिद्धि ( निष्पत्ति, निर्वृत्ति, पूर्ति ) में हमें अनेक साधनों की आवश्यकता होती है। पाक-क्रिया के १. 'तद्यत्रोभे, भावप्रधाने भवतः' । -निरुक्त ११
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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