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________________ क्रिया तथा कारक ४७ यह भी सत्य है कि उसी फल की प्राप्ति के उद्देश्य से ( अनुकूल ) व्यापार किया जाता है, दोनों को पृथक् करना कठिन है । कर्मवाच्य में फल की प्रधानता कर्मवाच्य में प्रधानता का यह नियम व्युत्क्रम हो जाता है । इसमें व्यापार को विशेषण रखकर फल को विशेष्य-भाव प्राप्त होता है, क्योंकि फल का आश्रय कर्म इसमें अभिहित रहता है। इस स्थिति में धातु का अर्थ फलावच्छिन्न व्यापार न रहकर व्यापारावच्छिन्न फल हो जाता है। वैसे धातु दोनों का बोध कराने में समर्थ है, किन्तु वाच्यभेद से कर्तृप्रत्यय या कर्मप्रत्यय के द्वारा उनके प्राधान्य-अप्राधान्य का निर्णय होता है । लोकानुभव से प्रमाणित होने के कारण इसमें गौरव-दोष नहीं होता। अतएव कर्मवाच्य के उदाहरण—'रामेणोदनः पच्यते' में पच-धातु का अर्थ बदला हुआ है। यह प्रधानतया व्यापार के अर्थ में नहीं है। अन्न-विक्लित्तिरूप फल की इसमें प्रधानता होने से व्यापार गौण हो गया है। वक्ता का सारा ध्यान ओदन के परिणाम पर केन्द्रीभूत है, व्यापार को वह महत्त्व नहीं दे रहा है। किन्तु व्यापार उससे अलग नहीं हो सकता, क्योंकि फल की व्यापारजन्यता सुस्पष्ट है। इसीलिए इसके शाब्दबोध में हम कहते हैं-रामाभिन्नकको यो व्यापारः तज्जन्या ओवनाभिन्नककर्मनिष्ठा विक्लित्तिः। यहाँ ओदन को संकलित रूप से एकत्व-संख्या से विशिष्ट मानकर तिङ् से अन्वय किया गया है । यह बात नहीं कि वह तण्डुल का एक ही दाना पका रहा है। शाब्दबोध वैयाकरण तथा नव्यनैयायिक दोनों ही धातु की शक्ति फल तथा व्यापार दोनों में स्वीकार करते हैं, किन्तु वैयाकरण विशिष्ट शक्ति ( फल-विशिष्ट व्यापार या व्यापार-विशिष्ट फल ) के द्वारा दोनों को जहाँ धातुबोध्य समझते हैं, वहाँ गदाधर प्रभृति नैयायिक पृथक् शक्ति मात्र से उन दोनों को धातुबोध्य मानते हैं। तात्पर्य यह है कि धातु की फलबोधिका शक्ति पृथक् है और व्यापार-बोधिका पृथक् है। नागेश ने इस मत का पूर्ण विवेचन लघुमंजूषा में किया है । नैयायिकों तथा वैयाकरणों के शाब्दबोध में तो अन्तर है ही। वैयाकरणों के अनुसार उपर्युक्त शाब्दबोध में क्रिया की विशेष्यता हम देख चुके हैं। उनका शाब्दबोध इसीलिए क्रियामुख्यविशेष्यक कहा जाता है । नैयायिकों के शाब्दबोध में प्रथमान्त शब्द से बोधित अर्थ की विशेष्यता १. 'कर्मप्रत्ययसमभिव्याहारे तु फलस्य विशेष्यता'। -ल० म०, पृ० ५४१ २. 'तस्मात्फलावच्छिन्ने व्यापारे व्यापारावच्छिन्ने फले च धातूनां शक्तिः । कर्तृकर्मार्थकतत्तत्प्रत्ययसमभिव्याहारश्च तत्तद्बोधे नियामकः । गौरवं च प्रामाणिकत्वान्न दोषावहम्। -ल० म०, पृ० ५४३ ३. ल. म०, पृ. ५४० ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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