SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास मात्रम् । कि तहि ? क्रियासाधनं क्रियाविशेषयुक्तं कारकम् । तदनुसार कारक-शब्दों का निमित्त समाविष्ट करना पड़ता है तभी कारक का समावेश हो सकेगा। इसकी टीकाओं में उद्योतकर तथा वाचस्पति ने भी अपने मत कारकों के विषय में व्यक्त किये हैं। जयन्तभट्ट ( ८५०-९०० ई० ) ने अपनी न्यायमञ्जरी में व्याकरण के सभी विषयों का प्रायः खण्डन ही किया है। इसके अध्ययन को निष्फल बतलाते हुए उन्होंने कहा है 'दुष्टग्रहगृहीतो वा भीतो वा राजदण्डतः । पितृभ्यामभिशप्तो वा कुर्याद् व्याकरणे श्रमम् ॥ -न्या० म०, पृ० ३८५ इसी प्रसंग में 'कारकानुशासन की दुःस्थता' की उन्होंने सविस्तर उपपत्ति की है । विशेष रूप से अपादान, सम्प्रदान, करण, अधिकरण तथा कर्म के ( पाणिनि के अनुसार कारक-क्रम ) विधायक सूत्रों का क्रमशः सोदाहरण खण्डन किया गया है। कर्ता के विषय में कई मत देकर प्रत्येक की असारता दिखलायी गयी है। वे मत निम्न हैं-(१) 'यद्व्यापाराधीनः कारकान्तरव्यापारः स कर्ता' । (२) 'यः कारकाणि प्रयुङ्क्ते, तैश्च न प्रयुज्यते स कर्ता'। ( ३ ) 'धातुनाभिधीयमानण्यापारः कर्ता। वास्तव में जयन्तभट्ट के समय से ही वैयाकरणों तथा नैयायिकों के मध्य मतभेद होने लगा, जो बाद में प्रत्येक स्थल पर दिखलायी पड़ने लगा। नव्यन्याय के प्रवर्तक गंगेश उपाध्याय ( १२०० ई० ) ने अपनी तत्त्वचिन्तामणि में नैयायिक-सम्मत प्रमाणचतुष्टय में से प्रत्येक का विशद विवेचन करने के लिए एक-एक खण्ड की रचना की है। इन खण्डों में विविध विषयों के प्रकरण 'वाद' के नाम से प्रसिद्ध है। यथा-मङ्गलवाद, प्रामाण्यवाद इत्यादि । शब्दखण्ड में शब्द-विषयक सभी विषयों का विवेचन हुआ है। व्याकरण से सम्बद्ध शक्तिग्रह, समासवाद इत्यादि का विचार विशद रूप से करने पर भी अलग से कारक पर कोई प्रकरण इन्होंने नहीं दिया है तथापि यत्र-तत्र अपने विचार तो व्यक्त किये ही हैं। विभिन्न कारकों के विवेचन-क्रम में हम इन्हें देखेंगे। ___गंगेश के अनुगामी नैयायिकों में प्रकरणों के लेखन के प्रति बहुत अधिक प्रवृत्ति दिखलायी पड़ती है। व्याकरण के इस प्रमुख तत्त्व कारक पर भी अनेक ग्रन्थ लिखे गये। १७वीं शताब्दी ई० के आरम्भ में आविर्भूत भवानन्द ने 'कारकचक्र' नामक एक अल्पकाय गद्यात्मक पुस्तक लिखी, जिसमें पाणिनि के सूत्रों का उद्धरण देते हुए सभी कारकों पर न्यायमत से विचार किया गया है। कारकों पर नैयायिक दृष्टिकोण का परिचय पाने के लिए यह सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। इसके सिद्धान्तों का खण्डन बहुधा व्याकरण-ग्रन्थों में हुआ है । भवानन्द के शिष्य जगदीश तर्कालंकार ( १६३० ई० ) कातन्त्र-सम्प्रदाय के अध्येता थे। उन्होंने न्यायमत से शब्द-विषयक विस्तृत विचार १. न्यायमंजरी, ५० ३८२-३ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy