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________________ कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास १९ कोण्डभट्ट की अनेक शास्त्रों में अव्याहत गति थी । सिद्धान्तों के विषय में भट्टोजिदीक्षित तथा कौण्डभट्ट के समान मत हैं । भूषण में निरूपित विषयों से तात्कालिक सूक्ष्मेक्षिका का परिचय मिलता है कि किस प्रकार व्याकरण-दर्शन न्यायादि के सिद्धान्तों से संघर्ष करके तत्त्व-विवेचन की चरम सीमा पर पहुँचने का प्रयास कर रहा था। अनावश्यक खण्डन-मण्डन वाले विवरणों को छोड़कर कौण्डभट्ट ने इस भूषण का भूषणसार के नाम से संक्षिप्त संस्करण किया था। वैयाकरणों में इसका बहुत अधिक प्रचार हुआ तथा अल्पकाल में ही इस पर अनेक टीकाएँ लिखी गयीं। इनमें हरिवल्लभ की दर्पण टीका ( १७४० ई० ), हरिराम दीक्षित की काशिका (समाप्तिकाल सं० १८५४ वि० की मार्गशीर्षपूर्णिमा, सोमवार अर्थात् दिसम्बर १७९५ ई०),२ वैद्यनाथ पायगुण्ड के शिष्य मन्नुदेव की कान्ति ( १८०० ई० ), भैरवमिश्र की परीक्षा ( १८२४ ई० ) इत्यादि मुख्य हैं। आधुनिक युग में पं० सभापति उपाध्याय ने भी इस पर रत्नप्रभा-टीका लिखी है। अन्नम्भट्ट अन्नम्भट्ट काशी-निवासी प्रसिद्ध पण्डित थे, जिनकी ख्याति 'तर्कसंग्रह' के लेखक के रूप में बहुत अधिक हुई। ये मूलतः तैलंग-प्रदेश के निवासी थे, किन्तु काशी में विद्याध्ययन के लिए आकर बस गये थे। कृष्णमाचार्य के अनुसार अन्नम्भट्ट भी शेषवीरेश्वर के शिष्य थे। अतएव इनका समय भी १६००-१६५० ई० के निकट होना चाहिए । इन्होंने अष्टाध्यायी पर एक साधारण वृत्ति 'पाणिनीय-मिताक्षरा' के १. वैयाकरणभूषण का एकमात्र प्रकाशन बम्बई संस्कृत तथा प्राकृत ग्रन्थमाला ( सं० ७० ) में १९१५ ई० में कमलाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी के समर्थ सम्पादकत्व में हुआ था। इसी के साथ ग्रन्थ में वैयाकरणभूषणसार और उस पर हरिराम काले की काशिका टीका भी प्रकाशित है। अन्त में त्रिवेदीजी की आलोचनात्मक तथा व्याख्यात्मक अंग्रेजी टिप्पणी भी वैयाकरणभूषण पर है । इसका पुनर्मुद्रण आवश्यक है। २. उपर्युक्त संस्करण में पृ० ६०८ पर 'युगभूतदिगीशात्म( १८५४ )सम्मिते वत्सरे गते । मार्गशीर्षशुक्लपक्षे पौर्णमास्यां विधोदिने । रोहिणीस्थे चन्द्रमसि वृश्चिकस्थे दिवाकरे । समाप्तिमगमद् ग्रन्थस्तेन तुष्यतु नः शिवः' ।। ३. वैद्यनाथ के पुत्र बालशर्मा ने मन्नुदेव तथा महादेव की सहायता से हेनरी टॉमस कोलबुक ( भारत में प्रवासकाल १७८३ ई० से १८१५ ई० ) की आज्ञा से धर्मशास्त्रसंग्रह लिखा था। ४. लोकोक्ति है-'काशीगमनमात्रेण नान्नम्भट्टायते द्विजः । 5. History of Classical Sanskrit Literature, p. 654.
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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