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________________ क-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास कारक - १७ हुए हैं जो काशी से प्रकाशित हैं । इस ग्रन्थ में पूर्वाचार्यों का संग्रह होने पर भी दीक्षित का पाण्डित्य - प्रकर्ष झलकता है । कई स्थलों पर विवेचन के लिए इन्होंने नव्यन्याय की शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जो पाणिनितन्त्र में पहली बार हुआ है । शब्दकौस्तुभ के प्रथम पाद पर नागेश, वैद्यनाथ, कृष्णमित्र आदि छह विद्वानों ने अपनीअपनी टीकाएँ लिखी थीं- ऐसा ऑफेक्ट के सूचीपत्र से ज्ञात होता है, किन्तु इनमें अभी कोई भी उपलब्ध नहीं है । पण्डितराज जगन्नाथ ने इस ग्रन्थ का भी खण्डन किया था । ( २ ) सिद्धान्तकौमुदी - ३९७८ सूत्रों की व्याख्या के रूप में यह सर्वज्ञात प्रक्रिया -ग्रन्थ है । इसमें पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध दो खण्ड हैं । पूर्वार्ध में संज्ञा एवं सन्धि के अतिरिक्त संज्ञाशब्द तथा उससे सम्बद्ध विषयों का ( शब्दरूप, स्त्री-प्रत्यय, कारक, समास तथा तद्धित ) विचार है । सभी प्रक्रिया- ग्रन्थों के समान इसमें भी कारक तथा विभक्ति का एक साथ निरूपण हुआ है, जिसे कुछ संस्करणों में कारक - प्रकरण तथा कुछ में विभक्त्यर्थ - प्रकरण कहा गया है । पिछला नाम सर्वथा उचित है । उत्तरार्ध में तिङन्त तथा धातु-विषयक प्रक्रियाओं का विवेचन है । अन्त में अष्टाध्यायी के सूत्रों में निरूपित वैदिकीप्रक्रिया तथा स्वरप्रक्रिया का विशद विचार है । कृदन्त प्रकरण के बीच में समस्त उणादिसूत्र तथा स्वर के विचार में फिट्सूत्रों का संग्रह सिद्धान्तकौमुदी की विशेषता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ की रचना से दीक्षित को सन्तोष नहीं था, क्योंकि उत्तरकृदन्त के अन्त में इन्होंने कहा है 'इत्थं लौकिकशब्दानां दिङ्मात्रमिह दर्शितम् । विस्तरस्तु यथाशास्त्रं वशितः शब्दकौस्तुभे ' ॥ तथापि सिद्धान्तकौमुदी का इतना अधिक प्रचार हुआ कि इसके द्वारा अष्टाध्यायी ही उत्खातप्राय हो गयी । आज भारतवर्ष के सभी विश्वविद्यालयों में इसी का प्राधान्य है । (३) प्रौढमनोरमा - सिद्धान्तकौमुदी की प्रथम व्याख्या दीक्षित ने ही प्रौढमनोरमा के नाम से लिखी । इसमें उनका प्रकृष्ट, पाण्डित्य प्रकट हुआ है । शब्दकौस्तुभ के समान इसमें भी स्थान-स्थान पर संस्कृत-साहित्य में आगत कतिपय चिन्त्य प्रयोगों पर विचार किया गया है । प्राचीन आचार्यों का विशेषतया प्रक्रियाकौमुदी १. कुचमर्दिनी, अधिकं कौस्तुभखण्डनादव सेयम् ( पृ० २१) । अणुदित्सूत्रगत - कौस्तुभखण्डनावसरे व्यक्तमुपपादयिष्यामः ( पृ० २ ) । २. सि० कौ० के टीकाकार - ज्ञानेन्द्रसरस्वती ( १६४० ई० ; तत्त्वबोधिनी ), वासुदेवदीक्षित ( १६६० ई०; बालमनोरमा ), नागेश ( १७०० ई०; शब्देन्दुशेखर ), नीलकण्ठ ( १६६० ई०; वैयाकरणसिद्धान्तरहस्य ), रामकृष्ण ( १६७० ई० ; वैयाकरणसिद्धान्त रत्नाकर ), कृष्णमौनि ( १७०० ई०; सुबोधिनी ) इत्यादि । ऑफ्रेक्ट ने कुल २१ टीकाओं की सूची प्रस्तुत की है
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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