SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास दोनों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार हेमचन्द्र ने ( १०८८-११७२ ई० ) अपने लिङ्गानुशासन की स्वोपज्ञवृत्ति में दोनों के नाम लिये हैं। दूसरी ओर धर्मकीर्ति ने रूपावतार में पदमञ्जरीकार हरदत्त ( १०५० ई० ) का नाम लिया है। अतः रूपावतार का रचनाकाल दोनों सीमाओं के मध्य १०८० ई० में रखा जा सकता है। धर्मकीर्ति बौद्ध भिक्षु थे । रूपमाला प्रक्रिया-क्रम में दूसरा उपलब्ध ग्रन्थ विमल सरस्वती ( १३४० ई० ) की रूपमाला है, जिसमें १७ प्रकरणों में विषय-विभाग किया गया है। इसके ११वें प्रकरण में कारक का विवेचन है । प्रक्रियाकौमुदी रामचन्द्र ने प्रक्रियाकौमुदी लिखी, जिसमें स्वरवैदिक-प्रकरण मिलाकर २४७० सूत्रों की अपेक्षाकृत विस्तृत व्याख्या की गयी है। यही ग्रन्थ सिद्धान्तकौमुदी का आदर्श है, ऐसा प्रतीत होता है । रामचन्द्र के कथनानुसार यह प्रक्रियाकौमुदी पाणिनिशास्त्र में प्रवेश कराने के लिए लिखी गयी थी, साध्य के रूप में नहीं। शब्दों का साधुत्व-ज्ञान कराना इसका मुख्य प्रयोजन है। रामचन्द्र सुप्रसिद्ध शेषवंश में उत्पन्न हुए थे। इस वंश से सम्बन्ध रखनेवालों ने अनेक व्याकरण-ग्रन्थ लिखे। रामचन्द्र के पौत्र विट्ठल ने प्रक्रियाकौमुदी की 'प्रसाद' नामक टीका लिखी थी, जिसका प्राचीनतम हस्तलेख ( लन्दन के इण्डिया ऑफिस में सुरक्षित ) सं० १५३६ वि० अर्थात् १४७९ ई० का है। इसके आधार पर विट्ठल का · समय १४७० ई० तथा रामचन्द्र का इससे कुछ पूर्व प्रायः १४२० ई० माना जा सकता है। विट्ठल के अतिरिक्त शेषकृष्ण ने भी प्रक्रियाकौमुदी की 'प्रकाश' नाम से एक व्याख्या लिखी थी। इसकी पाण्डुलिपि का समय १४५७ ई० ( १५१४ वि० ) है। इस आधार पर इस टीका का समय १४५० ई० हो सकता है। भट्टोजिदीक्षित शेषकृष्ण के ही शिष्य थे। अनुमान होता है कि शेषकृष्ण ने उक्त टीका अपने यौवन काल में लिखी थी तथा भट्टोजि इनके अन्तिम काल के छात्र रहे होंगे। प्रक्रियाकौमुदीकार रामचन्द्र विट्ठल के पितामह तथा शेषकृष्ण के पितृव्य थे । शेषकृष्ण के पुत्र वीरेश्वर के तीन प्रसिद्ध शिष्य हुए-विट्ठल ( प्रसाद-व्याख्याकार ), पण्डितराज जगन्नाथ तथा चक्रपाणिदत्त । इन्होंने विभिन्न विद्या-क्षेत्रों में यश पाया। भट्टोजिदीक्षित के ग्रन्थ पाणिनितन्त्र में भट्रोजिदीक्षित का उदय एक विशिष्ट महत्त्व रखता है, क्योंकि इन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा तथा प्रखर आलोचना-शक्ति का परिचय देते हुए अनेक ग्रन्थ लिखे । उपर्युक्त हस्तलिपियों के आधार पर इनका समय १४९०-१५८० ई० के १. सं० व्या० शा० इति० १; पृ० ३७८ पर दिया गया वंशवृक्ष ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy