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________________ अधिकरण-कारक अधिकरण के अन्य भेद यद्यपि अधिकरण के उक्त तीनों भेदों में सभी आधारों का अन्तर्भाव हो जाता है, तथापि प्रपंच के लिए पाणिनीयेतर सम्प्रदायों में आचार्यों ने कुछ अन्य भेदों का भी निर्देश किया है । इनमें चान्द्र, वाररुच, सौपद्म तथा मुग्धबोध में सामोपिक नामक चौथा भेद स्वीकृत है, जैसे – गङ्गायां घोषः । इसका अन्तर्भाव औपश्लेषिक में होने पर भी पृथक् निर्देश बतलाता है कि लक्षणा बोधित होने वाले पदार्थों को भी अधिकरण कहा जा सकता है, जैसे – 'करशाखाशिखरे करेणुशतमास्ते' ( अँगुलियों के छोर पर सैंकड़ों हाथी हैं - वश में हैं ) । इसे चागुदास औपचारिक अधिकरण ( पाँचवा भेद ) मानते हैं । सारस्वत तथा भोजदेव के सरस्वतीकण्ठाभरण में नैमित्तिक नामक छठा भेद भी स्वीकृत है, जिसका उदाहरण है – 'युद्धे संनह्यते वीर:' ( युद्ध के निमित्त वीर प्रस्तुत होता है ) । हम देख चुके हैं कि हेलाराज इसे वैषयिक अधिकरण मानते हैं । सारस्वत-सम्प्रदाय के लघु भाष्य ( पृ० २७० ) में कहा गया है ---- 'आधारस्त्रिविधो ज्ञेयः कटाकाशतिलेषु च । निमित्तादिप्रभेदाच्च षड्विधः कैश्चिदिष्यते ' ॥ ३१३ इसमें छह भेदों के उदाहरण देकर उनका शाब्दबोध भी कराया गया है, जो क्रमश: इस प्रकार हैं ( १ ) औपश्लेषिक – 'कटे शेते कुमारोऽसौ' । बोध - 'एककटाभिन्नाश्रयको निद्रानुकूल एककुमाराभिन्नाश्रयको वर्तमानो व्यापारः' । ( २ ) सामीपिक - 'वटे गावः सु शेरते' । 'वटा भिन्नाधारक निद्रानुकूलो बहुगोभिन्नाधारकवर्तमानो व्यापारः' । गायों का वट से संयोग नहीं रहने के कारण यह आधार ओपश्लेषिक से भिन्न है । तीन ही आधार मानने वाले पक्ष में औपश्लेषिक में इसका अन्तर्भाव हो सकता है, यदि वट में संयोग आरोपित हो । (३) अभिव्यापक - तिलेषु विद्यते तैलम्' । ' बहुतिलाभिन्नाधारक आत्मधारणानुकूल एकतैलाभिन्नाश्रयो वर्तमानो व्यापारः' । ( ४ ) वैषयिक - 'हृदि ब्रह्मामृतं परम् ' ( निदिध्यासतां स्फुरति ) = ध्यान करने वालों के हृदय में परब्रह्मरूप अमृत स्फुरित होता है । बोध - 'हृदयाभिन्नाश्रयक आत्मधारणानुकूलः स्फुरणानुकूलो वा एकब्रह्माभिन्नाश्रयको वर्तमानो व्यापारः' । (५) नैमित्तिक – 'युद्धे संनह्यते वीर:' । 'युद्धाभिन्नाधारकः कवच बन्धनानुकूल एकधीराभिन्नाश्रयको वर्तमानो व्यापारः' । निमित्त का अर्थ हेतु है, यहाँ कवच-बन्धन का फल ( उद्देश्य ) युद्ध है अतः वह निमित्त है । फल भी कभी-कभी हेतु कहलाता है । इसका निर्वाह वैषयिक के अन्तर्गत सम्भव है । १. रघुनाथ, लघुभाष्य ( वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई ), पृ० २७१-७२ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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